उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (Uttar Pradesh Revenue Code, 2006) प्रदेश की भूमि और राजस्व संबंधी व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करने हेतु पारित एक समेकित कानून है। यह संहिता पुराने राजस्व कानूनों और नियमों का संशोधन तथा समायोजन करते हुए राजस्व प्रशासन, निजी और सरकारी भूमि के अधिकार, रिकार्ड की व्यवस्था, कर–उपार्जन व वसूलियाँ, नक्सल एवं…
Month: November 2025
उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006
परिचय उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (उत्तर प्रदेश एक्ट नंबर — सामान्यतः “UP Revenue Code, 2006”) राज्य की भूमि व्यवस्था, राजस्व प्रशासन और संबंधित प्रक्रियात्मक नियमों का समेकित कानूनी ढांचा प्रस्तुत करती है। यह संहिता भूमि रिकॉर्ड, जमींदारी/किसानों के अधिकार, कर-निर्धारण, आबादी और राजस्व न्यायालयों से जुड़ी प्रक्रियाओं को विनियमित करती है। संक्षिप्त परिभाषा और…
“अपने मामले में न्यायाधीश नहीं बन सकता”
किसी भी विधिक व्यवस्था में निष्पक्षता और धार्मिकता (impartiality and fairness) का सिद्धांत सर्वोपरि होता है। इस सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने मामलों में न्यायाधीश नहीं बन सकता (nemo judex in causa sua)। यह सिद्धांत न केवल न्यायिक प्रक्रिया की नैतिकता का आधार है बल्कि कानूनी नियमों और…
न्यायपालिका किस प्रकार प्रशासनिक अधिकरण को नियंत्रित करती है?
परिचय न्यायपालिका और प्रशासनिक अधिकरण—दोनों ही शासन के महत्वपूर्ण अंग हैं। प्रशासनिक अधिकरण विशेषज्ञता-आधारित, शीघ्र और तकनीकी विवाद निपटान के साधन हैं; वहीं न्यायपालिका संवैधानिक महत्व की रक्षा, नियमों के पालन और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करती है। इसलिए न्यायपालिका का प्रशासनिक अधिकरणों पर नियन्त्रण आवश्यक है ताकि वे विधि के शासन…
बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) — विस्तृत व्याख्या और आपातकाल के दौरान इसकी उपलब्धता
प्रस्तावना बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका, जिसे अंग्रेजी में “Habeas Corpus” कहा जाता है, अधिकारों की रक्षा का एक मूलभूत औजार है। यह न्यायिक सिद्धांत व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अभिन्न है और अवैध हिरासत के खिलाफ सबसे प्रभावी उपचार माना जाता है। 1. परिभाषा तथा शब्दार्थ – ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका’ का शाब्दिक अर्थ…
ट्रिब्यूनल से आप क्या समझते हैं? — ट्रिब्यूनल की प्रकृति, कार्य और प्रक्रिया की विवेचना
परिचय ट्रिब्यूनल (Tribunal) शब्द का प्रयोग विशेषीकृत quasi-judicial संस्थाओं के सन्दर्भ में होता है जो विशिष्ट विषयों, विवादों या प्रशासकीय क्षेत्रों में निर्णय देने के लिए बनाए जाते हैं। सामान्य न्यायालयों की तरह ट्रिब्यूनल भी विवादों का निपटारा करते हैं, किंतु उनका स्वरूप, कार्यक्षेत्र तथा प्रक्रिया विशिष्ट, सरल और शीघ्र होती है। भारत में संवैधानिक…
प्रशासनिक अधिकरण से आप क्या समझते हैं? इसके उद्भव और विकास के कारणों की विवेचना
परिचय प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunals) वे विशेष न्यायिक-प्रशासनिक संस्थाएँ हैं जिनका उद्देश्य प्रशासकीय विवादों का त्वरित, कुशल और विशेषज्ञतापूर्वक निपटारा करना है। ये अधिकरण पारंपरिक सामान्य अदालतों से पृथक् होते हैं और अक्सर विशेष क्षेत्रों—जैसे कर, सेवा, भूमि, सुरक्षा, सूचना अधिकार आदि—में विशेषज्ञता प्रदान करते हैं। प्रशासनिक अधिकरण — परिभाषा और स्वरूप – परिभाषा: प्रशासनिक…
“दूसरे पक्ष की सुनो” के सिद्धांत की न्यायिक निर्णयों की सहायता से मूल्याङ्कन कीजिये ?
प्रस्तावना “दूसरे पक्ष की सुनो” (Audi alteram partem) न्यायिक प्रक्रिया और प्रशासनिक निर्णयों का एक मौलिक सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि किसी पर प्रभाव डालने वाला निर्णय लेने से पहले उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय (natural justice) का अभिन्न अंग है और भारत में संवैधानिक…
नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?
परिचय नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) कानून का वह मौलिक सिद्धांत है जो वैधानिक या प्रशासनिक निर्णयों में निष्पक्षता, उपयुक्त सुनवाई और तर्कसंगत प्रक्रिया सुनिश्चित करता है। यह सिद्धांत भारतीय विधि व्यवस्था में भी गहराई से समाहित है और संवैधानिक संरक्षण के साथ न्यायिक समीक्षा के आवश्यक मानदंड प्रदान करता है। परिभाषा और महत्व – परिभाषा:…
उपप्रत्यायोजन से आप क्या समझते हैं? उप प्रत्यायोजन की अवधारणा को प्रशासनिक विधि में क्यों समाहित किया गया?
सामान्य शब्दों में जब कोई व्यक्ति अपनी शक्ति को किसी अन्य व्यक्ति को प्रत्यायोजित करता है और वह अन्य व्यक्ति इस शक्ति को पुनः प्रत्यायोजन किसी अन्य व्यक्ति को करता है तो ऐसा पुनः प्रयोजन या उपप्रत्यायोजन कहलाता है। उदाहरण यदि संसद को किसी विषय पर विधि बनाने की शक्ति है और वह अपनी शक्ति…