माध्यस्थम (Mediation) वैकल्पिक विवाद निवारण (ADR) की वह प्रक्रिया है जिसमें निष्पक्ष तटस्थ तृतीय पक्ष — माध्यस्थ/मेडिएटर — विवादित पक्षों के बीच संचार व समझौता कराने के लिए मध्यस्थता करता है। इसका उद्देश्य पक्षों को पारस्परिक समझ और स्वेच्छिक समझौते के माध्यम से विवाद का समाधान दिलाना है, बिना न्यायालयीन मुकदमेबाजी के।
माध्यस्थम की परिभाषा
सरल शब्दों में माध्यस्थम वह प्रक्रियात्मक व्यवस्था है जिसमें एक तटस्थ तीसरा पक्ष पक्षों के बीच बातचीत को सुगम बनाता है ताकि वे स्वयं अपने मतभेद हल कर सकें। माध्यस्थम में निष्कर्ष स्वैच्छिक होता है, और फैसला (award) नहीं, बल्कि समझौता (settlement) होता है। यह प्रक्रिया गोपनीय, अनौपचारिक और लचीली होती है तथा कानूनी बंध्यता केवल तब बनती है जब समझौता लिखित रूप में कर संपन्न हो और उसे लागू कराया जाए।
माध्यस्थम के मुख्य लक्षण
– तटस्थता और निष्पक्षता: मेडिएटर अनपक्षपाती होना चाहिए।
– स्वैच्छिकता: पक्षों की भागीदारी सामान्यतः स्वैच्छिक होती है (हालाँकि कभी-कभी न्यायालय द्वारा आदेशित भी हो सकती है)।
– गोपनीयता: बैठकें और वार्ता सामान्यतः गोपनीय रहती हैं।
– नियंत्रण पक्षों के हाथ में: प्रक्रिया का मार्गदर्शन मेडिएटर करता है पर समाधान पर अंतिम नियंत्रण पक्षों के पास रहता है।
– अनौपचारिक और लचीला ढांचा: समय, स्थान और प्रक्रिया रूप से बाध्य नहीं।
– समझौता-आधारित परिणाम: न्यायालयीन निर्णय के बजाए समझौता (consent agreement) निकलता है।
माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996 — परिचय
भारत में पारंपरिक माध्यस्थम-विधि परिप्रेक्ष्य में “माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996” (Mediation and Conciliation Bill/Act, 1996 — यदि किसी राज्य/केंद्र में अधिनियमित रूप में पारित हुआ हो) का संदर्भ प्रासंगिक है। ध्यान दें कि भारत में ADR से संबंधित कई प्रावधान पृथक कानूनों (जैसे Arbitration and Conciliation Act, 1996) में हैं; परन्तु यहाँ प्रश्न स्पष्टतः “माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996” के विशेषताओं का विवरण माँगता है, अतः नीचे सामान्यतः बताई जाने वाली विशेषताएँ दी जा रही हैं।
मुख्य विशेषताएँ
1. उद्देश्य और दायरा
– अधिनियम का उद्देश्य विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे को प्रोत्साहित करना और न्यायालयों पर बोझ कम करना है।
– यह नागरिक, वाणिज्यिक और ऐसे अन्य विवादों पर लागू होता है जहाँ पक्ष सहमत हों। कुछ संवैधानिक/सरकारी मामलों के लिए सीमाएँ हो सकती हैं।
2. परिभाषाएँ
– माध्यस्थम/मेडिएशन, सुलह/conciliation, माध्यस्थ/मेडिएटर, पक्षकार इत्यादि की व्याख्या स्पष्ट की जाती है ताकि प्रक्रिया के दायरे और भूमिकाएँ सुनिश्चित हों।
3. स्वैच्छिक और अनिवार्यता का संतुलन
– मूलतः प्रक्रिया स्वैच्छिक है। पक्ष किसी भी समय प्रक्रिया छोड़ने का अधिकार रखते हैं।
– परन्तु अधिनियम में ऐसी प्रावधान भी हो सकते हैं कि न्यायालय मध्यस्थम के लिए पक्षों को निर्देश दे सके या मध्यस्थम प्रयास अनिवार्य करने के लिए शर्त रख सके, बशर्ते पक्षों के मौलिक अधिकार आहत न हों।
4. मेडिएटर की नियुक्ति, योग्यताएँ और व्यवहार मानक
– मेडिएटर की योग्यता, प्रमाणन और प्रशिक्षण की आवश्यकताएँ बताई जा सकती हैं।
– मेडिएटर की तटस्थता, गोपनीयता बनाए रखने तथा पक्षों को समान अवसर देने का कर्तव्य ठहराया जाता है।
– पक्षों द्वारा नियुक्त एकाधिक मेडिएटर अथवा पैनल की निर्देशावली दी जा सकती है।
5. गोपनीयता का प्रावधान
– प्रक्रिया में प्रस्तुत किए गए दस्तावेज और बहसें गुप्त रखी जाती हैं।
– सामान्यतः माध्यस्थम के दौरान जो भी जानकारी साझा की जाती है उसे न्यायालय में प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता (सिवाय कुछ अपवादों के)।
6. समझौता दस्तावेज की वैधानिकता
– सफल माध्यस्थम के उपरांत प्राप्त समझौता लिखित रूप में संकलित किया जाता है।
– अधिनियम में यह प्रावधान हो सकता है कि लिखित समझौता बाध्यकारी और कार्यान्वित करने योग्य हो तथा इसे अदालत में प्रवर्तित कराना संभव हो — जैसे समझौते का अदालत द्वारा हस्ताक्षरित आदेश बनाना।
7. न्यायिक हस्तक्षेप और संरक्षण
– माध्यस्थम के दौरान किए गए बयानों पर मुकदमों में प्रतिकर्यात्मकता (no prejudice) का प्रावधान हो सकता है ताकि पक्ष आश्वस्त होकर खुलकर चर्चा कर सकें।
– न्यायालय मध्यस्थम को प्रेरित कर सकता है पर निर्णय का दायित्व पक्षों पर ही रहता है।
8. लागत और प्रोत्साहन
– अधिनियम में मध्यस्थम की लागतों, शुल्कों और पक्षों द्वारा भुगतान की व्यवस्था का निर्देश हो सकता है।
– न्यायालय मध्यस्थम सफल होने पर पक्षों को लागत में राहत दे सकता है।
9. लागूकरण की सुविधाएँ और समय-सीमा
– विवादों को शीघ्र निपटाने के लिए समय-सीमा/निर्धारण के निर्देश दिए जा सकते हैं।
– मध्यस्थम केन्द्र/काउंसिल/पैनल आधारित ढांचे की स्थापना का प्रावधान हो सकता है जो पंजीकरण, सूची और निगरानी का काम करे।
10. अपवाद और सीमाएँ
– कुछ प्रकार के मामले (जैसे आपराधिक मामलों के गंभीर आरोप, सार्वजनिक हित के मुद्दे जहा न्यायहित में निर्णय आवश्यक हो) मध्यस्थम की उपयुक्तता से बाहर रखने के लिए प्रावधान हो सकते हैं।
– यदि समझौता संवैधानिक या कानूनी रूप से अवैध हो तो वह लागू नहीं होगा।
निष्कर्ष
माध्यस्थम एक स्वैच्छिक, गोपनीय तथा पक्ष-केंद्रित विवाद निवारण प्रक्रिया है जिसमें तटस्थ मेडिएटर के मार्गदर्शन से पक्ष अपने विवादों का समाधान करते हैं। माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996 की प्रमुख विशेषताएँ हैं—उद्देश्य का स्पष्ट होना, परिभाषाओं का समावेश, स्वैच्छिकता और न्यायिक प्रोत्साहन का संतुलन, मेडिएटर की योग्यता तथा गोपनीयता के प्रावधान, समझौते की वैधानिकता, लागत और समय-सीमा से संबंधित व्यवस्थाएँ तथा कुछ मामलों के लिए अपवाद।