माध्यस्थम तथा सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996) भारत में वैकल्पिक विवाद निपटान (Alternative Dispute Resolution – ADR) का प्रमुख संवैधानिक तथा विधिक ढांचा प्रदान करता है।
माध्यस्थम करार (Arbitration Agreement) का अर्थ और महत्व
परिभाषा: अनुच्छेद 7(1) (सेक्शन 7) के अनुसार, माध्यस्थम करार वह समझौता है जिसके द्वारा पक्ष यह सहमत होते हैं कि उनके बीच उत्पन्न या उत्पन्न होने वाले किसी विवाद का निपटारा एक या अधिक मध्यस्थों द्वारा किया जाएगा और वह मध्यस्थ/मध्यस्थों निर्णायक निर्णय (award) जारी करेंगे। यह लिखित रूप में होना अनिवार्य है—अधिनियम के तहत लिखित समझौते की आवश्यकता है।
महत्व:
न्यायालयों से मुकदमों की बचत: पक्ष विवाद को अदालत के बजाय त्वरित तथा गोपनीय माध्यम से निपटाते हैं, जिससे न्यायालयों का बोझ कम होता है।
प्रक्रिया पर नियंत्रण: पक्ष अपनी सहमति से मध्यस्थों की नियुक्ति, नियम, भाषा और स्थान तय कर सकते हैं, जो प्रक्रियात्मक विविधता और लचीलापन देता है।
निष्पादनीयता: मध्यस्थ द्वारा पारित निर्णेत (award) को न्यायालयों के समक्ष मान्यता और प्रवर्तन के माध्यम से लागू किया जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार में विश्वसनीयता: ADR, विशेषकर arbitration, विदेशी पक्षों के साथ अनुबंधों में प्रमुख होता है क्योंकि यह तटस्थ और पारदर्शी तंत्र प्रदान करता है।
समकक्षता (finality): फैसलें सामान्यतः अंतिम मानी जाती हैं और सीमित आधारों पर चुनौती योग्य होती हैं, जिससे विवादों का स्थायी समाधान संभव होता है।
माध्यस्थम करार के आवश्यक तत्व (Essential Elements)
किसी माध्यस्थम करार को वैध तथा प्रभावी मानने के लिये निम्न तत्व आवश्यक हैं:
लिखित रूप (Written form)
सेक्शन 7(2) के अनुसार, करार लिखित होना चाहिए। लिखा हुआ करार प्रत्यक्ष लिखित दस्तावेज, हस्ताक्षर, ईमेल या उस प्रासंगिक विनिमय के रूप में माना जा सकता है जो पक्षों के बीच विवाद के समय मौजूद था। न्यायालयों ने इसे व्यापक अर्थ में लिया है—लेखन में हस्ताक्षर और उस पर आधारित संवाद शामिल हैं।
विवाद का प्रस्ताव और स्वीकार्य विषय (Reference to present/future disputes)
करार में स्पष्ट होना चाहिए कि वह किस तरह के विवादों पर लागू होगा—वर्तमान विवाद या भविष्य में उत्पन्न होने वाले विवाद। स्पष्ट सीमा निर्धारण आवश्यक है ताकि लागू क्षेत्र स्पष्ट रहे।
मध्यस्थों की नियुक्ति या नियुक्ति विधि (Appointment of arbitrator(s) / procedure)
करार में मध्यस्थों की संख्या, योग्यता, नियुक्ति पद्धति, तथा उनके अधिकार-लाभ निर्दिष्ट होना चाहिए अथवा नियुक्ति का तंत्र निर्धारित होना चाहिए। यदि नहीं बताया गया, तो अधिनियम की प्रक्रिया लागू होती है (Sections 11 onwards)।
मध्यस्थ के अधिकार और दायित्व (Powers of arbitrator)
करार में मध्यस्थ को कौन-कौन से अधिकार दिए जा रहे हैं—प्रमाण इकट्ठा करना, गवाहियों को बुलाना, अंतरिम राहतें इत्यादि—की स्पष्टता हो सकती है। अधिनियम कोर्ट से कुछ सीमित हस्तक्षेप के साथ मध्यस्थ को पर्याप्त शक्तियाँ देता है।
मध्यस्थ का स्थान एवं विधि (Seat of arbitration and procedural rules)
करार में arbitration का सीट (स्थानीय क्षेत्रफल/जुरिस्डिक्शन) और लागू होने वाले नियम (आदेश/नियम/संस्थान के नियम जैसे ICC/UNCITRAL/ICSID आदि) निर्दिष्ट हो सकते हैं। सीट का निर्धारण निर्णय एवं निर्वाचन और न्यायालय के हस्तक्षेप के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।
समय-सीमा और प्रक्रिया संचालन (Time limits and conduct)
मध्यस्थम की अवधी, सुनवाई की तकनीक, दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की समय-सीमा आदि पर समझौता लाभदायक है।
पारदर्शिता, गोपनीयता और लागत वितरण (Confidentiality & costs)
करार में गोपनीयता के नियम तथा लागत, फीस व पुरस्कार वितरण की जिम्मेदारी का उल्लेख कर सकते हैं। यह वाणिज्यिक पार्टियों के लिये अक्सर आवश्यक होता है।
निर्णेत/award का उल्लेख (Arbitral Award — Description and Relevance)
निर्णेत/award का अर्थ:
निर्णेत वह लिखित निर्णय है जो मध्यस्थ/पैनल विवाद के निपटारे के बाद जारी करता है। यह पक्षों के लिए अंतिम और बाध्यकारी होता है, जब तक कि संवैधानिक और विधिक आधारों पर चुनौती न दी जाती हो।
प्रकार:
अंतिम निर्णेत (Final award) — विवाद के निपटान पर अंतिम आदेश।
आंशिक निर्णेत (Partial award) — केवल कुछ मुद्दों पर निर्णय; बाकी मुद्दे शेष रह सकते हैं।
अंतर्वर्ती/अंतरिम आदेश (Interim awards/orders) — मध्यस्थ द्वारा सुनवाई के दौरान दिए गए अस्थायी आदेश।
निर्णेत के अनिवार्य गुण:
लिखित होना और हस्ताक्षरित होना।
निर्णय की तिथि और सीट का उल्लेख।
विवाद का स्पष्ट विवेचन और कारण सहित आदेश।
यदि निर्णेत में मुआवजा निर्धारित है तो राशि व भुगतान के तरीके का विवरण।
निर्णेत को अधिनियम की धारा 31 के अनुसार अंतिम मानना जाता है; निष्पादन हेतु आर्डर के साथ दी जाएगी।
न्यायिक मान्यता तथा प्रवर्तन (Recognition and enforcement):
भारतीय अदालतें निर्णेतों का प्रवर्तन (Section 36) करती हैं तथा विदेशी पुरस्कारों का प्रवर्तन भी अधिनियम में प्रावधानित है (Section 44–55, New York Convention के अंतर्गत भी)।
चुनौती के सीमित आधार (Grounds for setting aside)
सेक्शन 34 के अधीन सीमित आधारों के तहत ही निर्णेत को गौण कर (set aside) किया जा सकता है, जैसे कि-
मध्यस्थम करार की शर्तों का अमान्य होना (उदाहरण: अनुबंध अवैध हो)।
पक्षकारिता/सम्मति में त्रुटि—पक्षों के बीच वैध सहमति का अभाव।
प्रकिया के कड़े उल्लंघन—न्याय संगत सुनवाई का अभाव, पक्षकारों को सुनने का अवसर न मिलना।
आदेश में निर्णयाधिकार से बाहर का निष्कर्ष।
सार्वजनिक नीति का उल्लंघन (public policy) — परिभाषा बेहद सीमित और न्यायालयों द्वारा सख्ती से पढ़ी जाती है (चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप)।
आदर्श उत्तर में यह बताना आवश्यक है कि चुनौती के तरीके और समय-सीमा भी अधिनियम में दिए गए हैं।
निर्णयों के प्रकार और उदाहरणात्मक निर्णय (Important Case Laws)
ONGC Ltd. v. Saw Pipes Ltd. (2003) — सार्वजनिक नीति की संकीर्ण व्याख्या और सेट-आसाइड के खिलाफ प्रतिरोध। (यह निर्णय सार्वजनिक नीति के विस्तृत और सीमित अर्थ के संदर्भ में प्रसिद्ध है।)
National Insurance Co. Ltd. v. Boghara Polyfab Pvt. Ltd. (2009) — सार्वजनिक नीति के विस्तार पर दिशानिर्देश; परन्तु बाद में SCC के निर्णय ने Saw Pipes के सिद्धांतों पर पुनर्विचार किया।
S.B.P. & Co. v. Patel Engineering Ltd. (2005) — मध्यस्थता अनुबंध तथा न्यायालय के हस्तक्षेप की सीमाओं पर मार्गदर्शन।
Balco v. Kaiser (2002) — सीट ऑफ आर्बिट्रेशन और न्यायालयीय अधिकार संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय; हालांकि यह भारत के 1996 अधिनियम से पहले का मामला है पर न्यायालयों के रुख को समझने में सहायक।
निष्कर्ष
माध्यस्थम करार, 1996 के अंतर्गत, पारंपरिक न्यायिक प्रक्रियाओं का विवेकपूर्ण विकल्प है। इसकी वैधता लिखित सहमति, मध्यस्थों के अधिकार, सीट तथा प्रक्रियात्मक नियमों पर निर्भर करती है। निर्णेत—अंतिम, आंशिक या अंतरिम—पक्षों के लिये बाध्यकारी होता है और सीमित आधारों पर ही उसे चुनौती दी जा सकती है।