मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights — UDHR), 1948 के प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या और इसका महत्व
परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध के त्रासद अनुभवों के पश्चात् मानवता ने यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की सार्वभौमिक सुरक्षा सुनिश्चित करना अनिवार्य है। इसी भावना से संयुक्त राष्ट्र सभा ने 1946 महासभा ने न्यूरैंबर्ग न्यायालय द्वारा प्रतिपादित नियमों को स्वीकृति प्रदान की और 10 दिसंबर 1948 को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) को अपनाया। यह घोषणा कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि तो नहीं है, पर यह अंतरराष्ट्रीय मानदंडों, राष्ट्रीय नीतियों और मानवाधिकार आंदोलन के लिए नैतिक और वैधानिक आधार बन गई है।
“सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुए हैं तथा मौलिक अधिकारों में समान है उनके तर्क तथा अंतःकरण है तथा उनमें एक दूसरे के प्रति भाईचारे का व्यवहार होना चाहिए”
प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या
1. समानता और गरिमा (अनुच्छेद 1–2)
– अनुच्छेद 1: सभी मनुष्यों की जन्मजात स्वतंत्रता और समान गरिमा को मान्यता देता है। इसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, लिंग, भाषा, राष्ट्रीयता, जन्म या किसी अन्य स्थिति के आधार पर नीचा नहीं आंका जाना चाहिए।
– अनुच्छेद 2: अधिकारों की उपलब्धता पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए और विशेष परिस्थितियों में रक्षा हेतु भेदभाव सीमित रूप से स्वीकार्य हो सकता है (उदा. कानूनी सुरक्षा के लिए)।
2. जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा (अनुच्छेद 3)
– हर व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्ति की सुरक्षा का अधिकार है। यह बुनियादी अधिकार है जिस पर अन्य स्वतंत्रताओं का आधार टिका है।
3. दासता और उत्पीड़न का प्रतिबन्ध (अनुच्छेद 4–5)
– अनुच्छेद 4 दासता और दासता के समान व्यवहार को स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है।
– अनुच्छेद 5 किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक शोषण, यातना अथवा दंड को रोकता है।
4. समानता के सामने कानून और कानूनी सुरक्षा (अनुच्छेद 6–12)
– अनुच्छेद 6–7: सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष मान्यता और समान संरक्षण का अधिकार।
– अनुच्छेद 8: जिस भी अधिकार का उल्लंघन हो, प्रभावी राष्ट्रीय नीतियों तथा न्यायालयों द्वारा न्याय पाने का अधिकार।
– अनुच्छेद 9–12: मनमाना गिरफ्तारी, गिरफ्तारी के बिना नजरबंदी, निजी जीवन और नाम तथा परिवार के मामलों में हस्तक्षेप से सुरक्षा। सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी आग्रह यहीं से जुड़ता है।
5. निष्पक्ष परीक्षण और न्यायिक गारंटी (अनुच्छेद 10–12)
– अनुच्छेद 10: निष्पक्ष और सार्वजनिक सुनवाई के अधिकार पर जोर; दोषसिद्धि या दंड के लिए उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन अनिवार्य है।
– यह दिशानिर्देश विधिक सुरक्षा तथा स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
6. विचार, अभिव्यक्ति, धर्म और सूचना की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 18–19)
– व्यक्ति को धर्म के बदलने और अपनी आस्था मानने की स्वतंत्रता है (अनुच्छेद 18)।
– सूचना प्राप्त करने और फैलाने, स्वतंत्र रूप से विचार और अभिव्यक्ति व्यक्त करने का अधिकार (अनुच्छेद 19) लोकतांत्रिक समाज का मूल अंग है।
7. सभा, संगठन और भागीदारी के अधिकार (अनुच्छेद 20–21)
– शांतिपूर्ण सभा और संघ बनाने का अधिकार।
– सरकार में भाग लेने, सार्वजनिक सेवा में शामिल होने तथा लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से शासन व्यवस्था में योगदान का अधिकार (अनुच्छेद 21)।
8. सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक तथा सांस्कृतिक अधिकार (अनुच्छेद 22–27)
– सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक स्थिरता, उचित जीवन स्तर (आहार, आवास, वस्त्र) तथा स्वास्थ्य का अधिकार।
– शिक्षा का अधिकार और सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार भी शामिल है। यह बताता है कि मानवाधिकार केवल नागरिक और राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक भी हैं।
9. काम करने के अधिकार और समान पारिश्रमिक (अनुच्छेद 23–24)
– रोजगार पाने का अधिकार, निष्पक्ष और संतोषजनक मजदूरी, संघ बनाने का अधिकार और आराम तथा अवकाश के अधिकार का उल्लेख है।
10. सार्वभौमिक पहुँच और बाध्यकारी सिद्धांत नहीं पर प्रेरणादायक प्रभाव
– UDHR स्वयं एक बाध्यकारी संधि नहीं है; फिर भी इसके सिद्धांतों ने कई अन्तरराष्ट्रीय संधियों (जैसे ICCPR — नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार संधि; ICESCR — आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार संधि) तथा राष्ट्रीय संविधानों और कानूनों को प्रभावित किया है। यह एक व्यापक मानवीय मानक की तरह कार्य करता है।
घोषणा का महत्व
1. सार्वभौमिक मानक का निर्माण
– UDHR ने मानवाधिकारों के लिए साझा भाषा और मानक दिए जो विभिन्न संस्कृतियों और देशों में सार्वभौमिक स्वीकार्यता के आधार बन गए। यह बताता है कि कुछ अधिकार सार्वभौमिक हैं और राजनीतिक सीमाओं से ऊपर हैं।
2. अंतरराष्ट्रीय कानून और नीतियों की नींव
– UDHR ने बाद की कई बाध्यकारी संधियों, राष्ट्रीय कानूनों, सर्वोच्च न्यायालयी फैसलों और मानवाधिकार संस्थाओं के लिए सिद्धांतों की आपूर्ति की। यह मानवाधिकार संरक्षण की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की आधारशिला बनी।
3. अधिकार आधारित रोजगार और सामाजिक आंदोलनों को वैधानिकरण
– नागरिक अधिकारों, महिला अधिकारों, बाल अधिकारों, प्रवासी अधिकारों और कामगार आंदोलनों ने UDHR के सिद्धांतों को अपने अभियान का आधार बनाया। इससे व्यापक सामाजिक सुधारों को नैतिक व कानूनी समर्थन मिला।
4. शिक्षा और चेतना का स्रोत
– UDHR ने शिक्षा व जनजागरण के माध्यम से नागरिकों में अपने अधिकारों की समझ विकसित की। इससे लोग अपने कानूनी और नीतिगत अधिकारों के प्रति अधिक सजग हुए तथा दमन के विरुद्ध आवाज उठा सके।
5. मानवाधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय निगरानी व दायित्व
– UDHR के सिद्धांतों ने संयुक्त राष्ट्र व अन्य संस्थाओं को मानवाधिकारों के उल्लंघन पर ध्यान देने, रिपोर्ट करने व आवश्यकताओं हेतु हस्तक्षेप/सुझाव देने का आधार दिया। इससे वैश्विक स्तर पर जवाबदेही की संस्कृति बढ़ी।
निष्कर्ष
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948 ने आधुनिक मानवाधिकार आंदोलन की नींव रखी। इसके प्रावधानों ने व्यक्तिगत गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों को सार्वभौमिक रूप से स्थापित किया तथा अंतरराष्ट्रीय कानून, राष्ट्रीय नीतियों और सामाजिक आंदोलनों के लिए मार्गदर्शक मानदंड प्रदान किए। आज भी UDHR का सन्देश प्रासंगिक है: मानव गरिमा और मौलिक अधिकारों का सम्मान सार्वभौमिक, अविभाज्य और परस्पर निर्भर है। इसे संरक्षण और प्रसार करना समकालीन लोकतंत्रों तथा समान, न्यायसंगत समाजों के लिए आवश्यक है।