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भारत में मानवाधिकारों के सम्बन्ध में राज्य के नीति निदेशक तत्वों का महत्त्व

Posted on November 7, 2025November 7, 2025 by KRANTI KISHORE

     मानवाधिकार किसी भी समाज की नैतिक और कानूनी नींव होते हैं। भारत जैसे विविध सामाजिक‑राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और संवैधानिक बहुलता वाले देश में, राज्य की नीतियाँ—विशेषकर वे नीति‑निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy, DPSP) जिन्हें संविधान के भाग IV में स्थान दिया गया है—मानवाधिकार सुनिश्चित करने में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। यहाँ हम DPSP के महत्व, उनके अधिकारों से सम्बन्ध, व्यवहारिक प्रभाव और चुनौतियों पर चर्चा करेंगे।

DPSP क्या हैं और उनका उद्देश्य

– परिभाषा: नीति‑निदेशक तत्व संविधान के वह सिद्धांत हैं जिनका उद्देश्य राज्य के लिए मार्गदर्शन प्रदान करना है कि वह सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु क्या कदम उठाये।

– उद्देश्य: DPSP का लक्ष्य समावेशी विकास, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुलभता, श्रम‑हितों की सुरक्षा, तथा आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को कम करना है—ये सभी मानवाधिकारों के मूलभूत आयाम हैं।

DPSP और मानवाधिकारों का सम्बन्ध

– सकारात्मक और नकारात्मक अधिकारों का समन्वय: मानवाधिकार अक्सर दो रूपों में देखे जाते हैं—नागरिक‑राजनैतिक अधिकार (नकारात्मक अधिकार, उदाहरण: स्वतंत्रता, जीवन) और सामाजिक‑आर्थिक अधिकार (सकारात्मक अधिकार, उदाहरण: आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य)। DPSP सामाजिक‑आर्थिक अधिकारों के संरक्षण और प्रवर्धन के लिए नीति‑दिशा प्रदान करते हैं।

– संवैधानिक तंत्रों के बीच संतुलन: भारतीय संविधान में मूल अधिकार (Fundamental Rights) को कानूनन बाध्यकारी बनाया गया है, जबकि DPSP गैर‑बाध्यकारी हैं। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं ने दोनों के बीच समन्वय स्थापित किया है—उदाहरण के लिए शिक्षा का अधिकार और रोजगार के अवसरों के संदर्भ में DPSP की व्याख्या ने मूल अधिकारों की व्यावहारिक उपयोगिता बढ़ाई है।

– न्यायपालिका में प्रभाव: सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने DPSP को मानवीय व सामाजिक न्याय के व्यापक तंत्र के रूप में स्वीकार किया है और कभी‑कभी नीतिगत निर्देशों को ब्रीच के निवारण के लिए आधार बनाया है। इससे DPSP का मानवाधिकार संरक्षण पर प्रत्यक्ष प्रभाव बढ़ा है।

DPSP का व्यवहारिक महत्व

– नीति निर्माण और कानून निर्माण के लिए मार्गदर्शन: DPSP सरकारों को ऐसी नीतियाँ और कानून बनाने हेतु प्रेरित करते हैं जो सामाजिक असमानताओं और वंचनाओं को दूर करें—जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम, निःशुल्क या सस्ती शिक्षा नीतियाँ, अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण नीतियाँ।

– लोक प्रशासन और कल्याणकारी कार्यक्रमों की नींव: अनेक कल्याणकारी योजनाएँ DPSP के आदर्शों के अनुरूप हैं—जैसे न्यूनतम आश्रय, पोषण सुरक्षा, महिला और बाल विकास कार्यक्रम आदि।

– लोकहित उद्योगों और बुनियादी ढांचे का विस्तार: DPSP के निर्देशों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान, मुफ्त या सस्ती शिक्षा व्यवस्था जैसे सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के विकास को प्रोत्साहित किया है जो मानवाधिकारों की साकारता में सहायक हैं।

चुनौतियाँ और सीमाएँ

– गैर‑बाध्यकारी स्वभाव: DPSP कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं; इसलिए उनकी पूर्ण और त्वरित पालना का अभाव देखा गया है—वित्तीय संसाधनों या राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी बाधक हो सकती है।

– वित्तीय और प्रशासनिक प्रतिबंध: नीति‑आइडिया अच्छे हों परन्तु उन्हें लागू करने के लिए आवश्यक संसाधन और संस्थागत क्षमता न होने पर उद्देश्य सिद्ध नहीं होते।

– नीति और अधिकारों के बीच टकराव: कभी‑कभी विशिष्ट नीतिगत निर्णयों और मौलिक अधिकारों में टकराव भी देखने को मिलता है, जिसपर न्यायिक विवेचना आवश्यक होती है।

– कार्यान्वयन में असमानता: केन्द्र‑राज्य नेतृत्व, स्थानीय प्रशासन और समावेशी भागीदारी की भिन्नता के कारण नीतियाँ समान रूप से लागू नहीं हो पातीं—जिससे मानवाधिकारों के संरक्षण में क्षेत्रीय असमानताएँ उत्पन्न होती हैं।

नवीन प्रगति और मार्ग आगे

– न्यायिक सक्रियता और व्याख्या: न्यायालयों ने DPSP को मानवाधिकार संरक्षण का संवैधानिक आधार मानते हुए नयी व्याख्याएँ प्रदान की हैं। यह प्रवृत्ति मजबूत होती रही है और मानवाधिकार आधारित नीति‑निर्माण को समर्थन देता है।

– नीति‑निर्माण में हिस्सेदारी: नागरिक समाज, मीडिया और समुदायों की भागीदारी DPSP आधारित नीतियों को प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण है। पारदर्शिता और जवाबदेही से कार्यान्वयन बेहतर होता है।

– अनुकूल संवैधानिक हस्तक्षेप: DPSP को व्यवहार में लाने के लिए संवैधानिक और क़ानूनी सुधार—उदाहरण के लिए सामाजिक सुरक्षा के कानूनी अधिकारों का समेकन—एक रास्ता हो सकता है।

– समेकित एवं सूचना‑आधारित नीतियाँ: डेटा‑चालित लक्ष्यों, बजटीय प्राथमिकताओं और समयबद्ध लक्ष्यों के साथ DPSP के सिद्धांतों को नीति‑फ्रेमवर्क में शामिल करने पर अधिक ठोस परिणाम मिल सकते हैं।

निष्कर्ष

भारत में नीति‑निदेशक तत्व केवल आदर्श वाक्य या नीति‑दिशा नहीं हैं; वे मानवाधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। चार्टर ऑफ़ गवर्नेंस में DPSP का महत्व इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि वे सामाजिक‑आर्थिक नीतियों का नैतिक और संवैधानिक आधार प्रदान करते हैं। हालांकि उनकी गैर‑बाध्यकारी प्रकृति और संसाधन सीमाएँ चुनौती हैं, न्यायपालिका की संवेदनशील व्याख्या, नागरिक भागीदारी और प्रभावी कार्यान्वयन के माध्यम से DPSP मानवाधिकारों की उपलब्धता और न्याय सुनिश्चित करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। सरकारों, न्यायपालिका और समाज को मिलकर इन्हें लागू करना होगा ताकि संविधान का समग्र उद्देश्य—”सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”—सभी नागरिकों के लिए साकार हो सके।

 

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