प्रस्तावना
भूमिधर (occupant/landholder) और उसके अधिकार भारतीय भूमि कानून एवं राजस्व व्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण अंग हैं। एनविख्यात श्रेणियों में “संक्रमणीय अधिकार” (transferable rights) और “असंक्रमनीय अधिकार” (non-transferable/inalienable rights) का विभाजन विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इससे न केवल व्यक्ति के निजी स्वत्व व लेन-देन की क्षमता निर्धारित होती है, बल्कि सार्वजनिक नीति, सामाजिक हित और भूमि सुधारों के लक्ष्यों की प्राप्ति भी प्रभावित होती है।
1. संक्रमणीय अधिकार वाले भूमिधर से क्या समझा जाता है?
a. परिभाषा एवं अर्थ
– “संक्रमणीय अधिकार” से आशय ऐसे अधिकारों से है जिन्हें धारक स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित (transfer), विरासत (inherit), प्रतिकारी लेनदेन (sale, mortgage, gift) आदि द्वारा दूसरे को हस्तांतरित कर सकता है। ये अधिकार आम तौर पर संपत्ति के सामान्य स्वामित्व-संबंधी विशेषाधिकारों के समान होते हैं।
– भूमि पर ऐसे अधिकार धारक को प्रतिष्ठित/निजी स्वत्व के समान विकल्प मिलते हैं — बेचना, बंधक रखना, आधार पर अग्रसारित करना, या उत्तराधिकारियों को देना।
b. व्यवहारिक उदाहरण
– पक्की पट्टेदारी/मालिकी जिनमें भूमि बेचने और आवंटन का अधिकार है।
– कॉमर्शियल लीज/समेकृत अधिकार जिनका लेन-देन मुक्त है।
2. उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 में “असंक्रमनीय अधिकार” वाले भूमिधर — परिचय
उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (यहाँ संहिता) में भूमि सम्बन्धी कई प्रावधान हैं जो भूमि-स्वामित्व, भूमि-धारक, पट्टे, भूमि-संशोधन और सामाजिक-आर्थिक नीतियों को प्रतिस्थापित करते हैं। संहिता में कुछ श्रेणियाँ विशेष रूप से “असंक्रमनीय” अधिकार मानकर रखी जाती हैं — यानी कि उन भूमिधर/किसानों के अधिकार सीमित हैं और वे स्वतंत्र रूप से हस्तांतरित नहीं कर सकते। असंक्रमनीय (inalienable) अधिकारों का उद्देश्य भूमि के सामाजिक-संरक्षण, कृषक हित और भूमिहीनता तथा पितृसत्तात्मक अथवा सामूहिक दुरुपयोग से सुरक्षा प्रदान करना होता है।
3. असंक्रमनीय अधिकार वाले भूमिधर के अधिकार — संहिता के सन्दर्भ में विवेचना
a. स्वत्व का सरलीकृत स्वरूप (Limited Proprietary Rights)
– असंक्रमनीय भूमिधर को पूर्ण स्वामित्व (absolute ownership) की तुलना में सीमित स्वत्व प्राप्त होता है। उनका अधिकार कृषिक प्रयोग, आय का उपभोग और सामान्य विरासत संबंधी अधिकारों तक सीमित हो सकते हैं।
– उदाहरण: भूमि पर खेती करने तथा उससे प्राप्त उपज का दायित्व रखने का वैधानिक अधिकार; परन्तु भूमि को बेचने अथवा ग़ैर-कृषि उपयोग हेतु स्थानांतरित करने का अधिकार न होना।
b. स्थानांतरण पर रोक / रोक के प्रकार
– असंक्रमनीय अधिकार का मूल लक्षण यह है कि भूमि का व्यवस्थित रूप से विक्रय, उपहार, या बंधककरण प्रतिबन्धित होता है। यह रोक कई रूपों में हो सकती है:
– पूर्ण निषेध: किसी भी परिस्थिति में भूमि का स्थानांतरण वर्जित।
– सशर्त/नियंत्रित स्थानांतरण: केवल प्रशासनिक अनुमोदन, भूमि सुधार प्राधिकरण अथवा अदालत की अनुमति पर स्थानांतरण संभव।
– प्राथमिकता प्रावधान: यदि स्थानांतरण हेतु अनुमति मिले भी, तो स्थापित नियमों के तहत कुटुम्ब/गाँव/राज्य को प्राथमिकता देना।
c. उत्तराधिकार और उत्तराधिकारियों के अधिकार
– असंक्रमनीय भूमिधर के मामले में विरासत द्वारा अधिकार अक्सर मान्य होते हैं परंतु यह भी शर्तों के अधीन हो सकता है — जैसे भूमि का पुत्र/पीढ़ी तक ही हस्तांतरण, किसी निश्चित श्रेणी के व्यक्तियों तक सीमित रखना इत्यादि।
– संहिता में इन मामलों में प्रशासनिक रिकॉर्डिंग, पंजीकरण व पहचान के प्रावधान रखे जाते हैं ताकि अक्षम व अज्ञात हस्तांतरणों पर रोक बन सके।
d. नियंत्रण व संरक्षण की भूमिका — राज्य का दखल
– असंक्रमनीय अधिकारों के संदर्भ में राज्य की भूमिका व्यापक होती है: भूमि सुधारों के अंतर्गत पुनःवितरण, भू-उपयोग नियमन, नोडल प्राधिकरण द्वारा अनुमति—सभी राज्य-उपक्रमों का भाग होते हैं।
– संहिता में राज्य को अधिकार दिए जा सकते हैं कि वह असंक्रमनीय भूमि पर नियंत्रण रखे, भूमि उपयोग की नीतियाँ निर्धारित करे, व अपवादों पर निर्णय ले।
e. अनन्य लाभ (usufructuary) व स्वीकृत उपयोग
– भूमिधर को जमीन से संबंधी लाभ प्राप्त करने का अधिकार (उपज, किराया) उपलब्ध रहता है; पर भूमि की स्थायी बिक्री व वास्तविक मालिकाना हक सीमित किया जा सकता है।
– उपज का स्वतंत्र उपयोग, किराये पर देने की सीमाएँ और भूमि पर संपत्ति उत्पन्न करने वाले अन्य अधिकार संहिता में परिभाषित होते हैं।
f. रिकॉर्डिंग, पंजीकरण व साक्ष्य
– असंक्रमनीय भूमि के अधिकारों की मान्यता के लिये रिकॉर्डों का रख-रखाव आवश्यक होता है। संहिता पंजीकरण, रजिस्टर में प्रविष्टि और प्रमाण-पत्रों की आवश्यकता निर्धारित कर सकती है। इससे अनधिकृत स्थानांतरणों पर रोक तथा अधिकारों के प्रमाण की सुविधा होती है।
g. दंडात्मक/निषेधात्मक प्रावधान व अनुषंगिक उपाय
– संहिता में असंक्रमनीय भूमि के अवैध हस्तांतरण, नक़ल, या दुरुपयोग पर दंड तथा जमीन की वापसी, रद्दीकरण जैसी कारवाई का प्रावधान होता है। यह भूमि के असंबद्ध संपर्कों से रक्षा हेतु आवश्यक है।
4. न्यायिक प्रवृत्तियाँ एवं व्याख्यात्मक मान्यताएँ
– सुप्रीम कोर्ट व राज्य उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर असंक्रमनीय अधिकारों की व्याख्या की है। कुछ अहम बिंदु:
– सामाजिक उद्देश्य: असंक्रमनीयता के प्रावधानों का उद्देश्य कृषक हित, भूमिहीनता निवारण व जमीन के संपार्श्विक व्यापार को नियंत्रित करना है; न्यायालय आमतौर पर इन उद्देश्यों पर बल देते हैं।
– संवैधानिक सीमाएँ: यदि किसी प्रभावी तरीके से अधिकारों का विनाश किया जाता है तो संवैधानिक अधिकारों (जैसे कि संपत्ति का संरक्षण—पूर्व में अनुच्छेद 31 आदि; वर्तमान में राज्य-निर्मित संपत्ति संबंधी प्रावधान) का प्रश्न उठ सकता है। निहितार्थ यह कि असंक्रमनीयता को भी कानूनी प्रक्रिया व विधिक संवैधानिकता के अनुरूप लागू करना होगा।
– निषेध पर कड़ी शर्तें: न्यायपालिका ने कभी-कभी जमीन के असेस्ड अधिकारों पर पूर्ण लॉक-डाउन जैसे कड़े प्रतिबंधों को मुल्यांकन किया और यह देखा कि क्या ये सीमाएँ आवश्यक, उपयुक्त तथा उचित हैं।
5. उदाहरणात्मक प्रावधान (सैद्धान्तिक रूप से)
– असंक्रमनीय भूमिधर को भूमि का उपयोग करने व उपज प्राप्त करने का अधिकार मिलेगा पर उसे बेचने/हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं होगा।
– स्थानांतरण के सबंध में किसी भी प्रकार की अनुमति तभी दी जा सकती है जब भूमि-समूह के हित, सरकारी नीति और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति सुनिश्चित हो।
– असंक्रमनीय भूमि के रिकॉर्ड को वृहद् रूप से रजिस्टर्ड किया जाएगा तथा किसी भी कथित हस्तांतरण को रजिस्टर के अनुसार ही वैध माना जाएगा।
– किसी भी अवैध हस्तांतरण की स्थिति में संहिता सरकार/प्रशासन को जमीन रद्द करने व दंडात्मक कार्रवाई के अधिकार देती है।
– विरासत संबंधी अधिकार सीमित रूप में दिए जा सकते हैं — केवल परिवार के भीतर स्थानांतरण व कुछ शर्तों के साथ।
– भूमि सुधारों व पुनर्वितरण के उद्देश्य से राज्य को भूमि पर वरीयता व अधिकार रखना अपेक्षित है।
6. असंक्रमनीय अधिकारों के लाभ और कमी — आलोचनात्मक विवेचना
लाभ:
– भूमिहीनता कम करने व कृषि को स्थायी रखने में मदद।
– जमीन के दुरुपयोग, जमींदारी व्यवस्था की पुनरुत्थान की आशंका को रोकना।
– सामाजिक-न्याय और भूमि सुधार नीतियों की पूर्ति में सहायक।
कमी व आलोचना:
– बाजार-आर्थिक प्रयोजनों के लिए गतिशीलता घटती है; खेतीदारों के पास संपत्ति के रूप में पूँजी जुटाने के साधन सीमित हो सकते हैं (उदाहरण: बैंकों के समक्ष बंधक के रूप में भूमि प्रस्तुत करना कठिन)।
– यदि प्रावधान कठोर व अतिशय रूप से लागू हों तो यह स्वत्व अधिकारों के अति-कठोर प्रतिबंध बनते हैं, जो संवैधानिक जांच के दायरे में आ सकते हैं।
– कदाचित प्रशासनिक दखल अधिक होने पर भ्रष्टाचार/अधिकारों की गलत व्याख्या के खतरे बढ़ सकते हैं।
संक्रमणीय अधिकार वाले भूमिधर वे हैं जिनके पास भूमि पर ऐसे स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार होते हैं जिन्हें वे स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित, बेच, बंधक कर सकते हैं और जो सामान्य संपत्ति-स्वत्व के अनुरूप होते हैं। इन्हें निजी स्वत्व के व्यापक अधिकार प्राप्त होते हैं।
उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 के संदर्भ में असंक्रमनीय अधिकार वाले भूमिधर का तात्पर्य उन धारकों से है जिनके भूमि-स्वत्व चरम रूप से सीमित हैं; वे भूमि का प्रयोग, उपज आदि का लाभ ले सकते हैं परन्तु भूमि का स्वतंत्र स्थानांतरण, विक्रय अथवा बंधककरण नियमिततः वर्जित या नियंत्रित होता है। संहिता ऐसी भूमिधरों के अधिकारों का संरक्षण, पंजीकरण और रिकॉर्डीकरण सुनिश्चित करती है तथा राज्य को अधिकार देती है कि भूमि सुधार, पुनर्वितरण तथा सामाजिक हितों के लिये आवश्यक नियंत्रण लागू करे। असंक्रमनीय भूमिधर के अधिकारों में सीमित स्वत्व, विरासत के प्रतिबंध, स्थानांतरण पर शर्तें, प्रशासनिक अनुमोदन की आवश्यकता तथा अवैध हस्तांतरण पर दंडात्मक प्रावधान प्रमुख हैं। जबकि यह नीति सामाजिक उद्देश्यों (भूमिहीनता उन्मूलन, कृषि संरक्षण) में सहायक है, इसका अति-प्रयोग कृषक की आर्थिक स्वायत्तता और संपत्ति के बाजारिक उपयोग को सीमित कर सकता है, अतः संतुलित तथा संवैधानिक तरीके से लागू करना आवश्यक है।