प्रस्तावना
विधि के शासन (Rule of Law) आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्रों का मूलभूत सिद्धांत है। यह केवल कानून का शासन नहीं, बल्कि कानून की समानता, विधि द्वारा संचालित प्रक्रिया, और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला व्यापक तत्त्व है। भारत में यह सिद्धांत न केवल संवैधान में निहित है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट व उच्चतम न्यायालयों की व्याख्याओं के माध्यम से भी विस्तृत रूप से विकसित हुआ है। नीचे हम विधि के शासन के अर्थ, इसके प्रमुख घटक और भारतीय संविधान में इसकी अभिव्यक्ति की व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं।
विधि के शासन का अर्थ
विधि के शासन का सामान्य अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति, संस्था या सरकारी सत्ता के सभी कर्म कानून के अधीन होंगे। किसी भी प्रकार की शक्ति अनियमित, मनमानी या व्यक्तिपरक ढंग से प्रयोग नहीं की जा सकती। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि:
- कानून सभी के लिए समान हों और सभी के लिए लागू हों;
- कानून स्पष्ट, स्थिर और सार्वजनिक हों ताकि नागरिक अपने कर्तव्यों और अधिकारों के सुस्पष्ट ज्ञान में रहें;
- सरकारी कार्यवाही विधि सम्मत प्रक्रिया के अनुरूप हो और मनमाना शोषण न हो;
- न्यायालय स्वतंत्र और प्रभावी हों ताकि कानून का उल्लंघन होने पर उपयुक्त राहत मिल सके।
विधि के शासन के प्रमुख तत्व
- समानता और गैर-भेदभाव: कानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होने चाहिए; किसी को विशेषाधिकार कानून के बाहर नहीं रखा जा सकता।
- कानून की सर्वोच्चता: सरकार के कार्यों की वैधता कानून के अनुरूप जाँच की जानी चाहिए।
- विधि द्वारा शासित प्रक्रिया (Due Process): किसी भी व्यक्ति के अधिकारों、स्वतंत्रता या संपत्ति पर कार्रवाई विधिसम्मत प्रक्रिया से होनी चाहिए — अर्थात पारदर्शी, उचित और अवसर-परक प्रक्रियाएं उपलब्ध हों।
- स्वतंत्र न्यायपालिका: कानूनी विवादों की निष्पक्ष सुनवाई के लिए न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष होनी चाहिए।
- मानवाधिकारों की सुरक्षा: कानूनों का उद्देश्य मौलिक अधिकारों की रक्षा करना होना चाहिए।
भारतीय संविधान में विधि के शासन की अभिव्यक्ति
भारतीय संविधान ने संकल्पनात्मक रूप से ‘विधि के शासन’ को सीधे शब्दों में तो नहीं कहा परन्तु इसके कई अनिवार्य तत्वों को संविधान के प्रावधानों के माध्यम से सुनिश्चित किया है। मुख्य प्रावधान और न्यायिक व्याख्याएँ निम्न हैं:
- मूलभूत अधिकारों का प्रावधान (Part III)
- अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार): “कानून के समक्ष समता तथा कानून का समान संरक्षण” का प्रावधान विधि के शासन का केन्द्रबिंदु है। अनुच्छेद 14 का अर्थ यह हुआ कि राज्य एक समान दृष्टि से नियम बनायेगा और कार्य करेगा; किसी के साथ मनमानी भेदभाव न होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में कहा है कि अनुच्छेद 14 विधि के शासन का संवैधानिक स्तम्भ है।
- अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता): “किसी भी व्यक्ति से उसकी जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता को विधिसम्मत प्रक्रिया के विरुद्ध छीना नहीं जा सकेगा।” यहां ‘विधिसम्मत प्रक्रिया’ का विस्तार करते हुए न्यायालयों ने कहा कि केवल विधि होना ही काफी नहीं; वह विधि न केवल उचित हो बल्कि न्यायसंगत एवं सुस्पष्ट भी होनी चाहिए। इसीलिए न्यायालयों ने ‘प्रोसेस फेयरनेस’ और ‘न्यायसंगत प्रक्रिया’ के सिद्धांतों को विकसित किया।
- अन्य प्रावधान जैसे अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति, सभा इत्यादि के अधिकार) भी नियमन और प्रतिबंधों के संदर्भ में विधि के शासन की आवश्यकता रेखांकित करते हैं।
- कानून द्वारा शासन की आवश्यकता और वैधता की समीक्षा
भारतीय न्यायपालिका ने कई मामलों में यह स्थापित किया है कि शासन के प्रत्येक कदम के पीछे वैध विधिक आधार होना चाहिए। मनमाने और अतिशक्तिशाली आदेशों को अदालतें खारिज कर देती हैं। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 14 और 21 के तहत नोटिस, सुनवाई तथा उचित कारणों के अभाव में संपत्ति या स्वतंत्रता पर संकोचन को असंवैधानिक ठहराया गया है। - संवैधानिक विवेक और विभाजन (Separation of Powers)
भारतीय संविधान में विधि के शासन को यह सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत व्यवस्था दी गई है कि कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शाखाएँ एक-दूसरे से पृथक रहें और पारस्परिक संतुलन बनाए रखें। न्यायपालिका का परीक्षण और समीक्षा (judicial review) इसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी है — संसद के बनाए कानूनों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जाँच करने का अधिकार न्यायपालिका को है। यह अधिकार विधि के शासन की रक्षा में निर्णायक भूमिका निभाता है। - संवैधानिक मर्यादा और मूलभूत अधिकारों का संरक्षण
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के साथ-साथ उनके निहित सीमाओं और प्रक्रिया का वर्णन है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी अधिकार पर अंकुश केवल विधि द्वारा और उचित कारणों से ही लगाया जा सके। न्यायालयों ने कहा है कि ‘कठोरता और मनमानी’ के आधार पर लगाए गए प्रतिबंध अनुचित हैं और विधि के शासन के सिद्धांत के विरुद्ध हैं।
न्यायालयों की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याएँ
भारतीय सर्वोच्च और उच्चतम न्यायालयों ने विधि के शासन को विकसित और मजबूत करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत जिन्हें न्यायालयों ने रेखांकित किया है:
- ‘न्यायसंगत और विधिसम्मत प्रक्रिया’ (Due Process of Law) का भारतीयकरण — सिर्फ विधि होना ही पर्याप्त नहीं; विधि न्यायसंगत और निष्पक्ष होनी चाहिए।
- मनमानी के विरुद्ध संरक्षण — प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा ताकि सत्ता का सौतेला उपयोग रोका जा सके।
- विभाजन शक्ति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता का रक्षण — संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका का सशक्तिकरण।
- संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण — विधि के शासन को केवल औपचारिक रूप से कानून की शासितता न मानकर न्यायालयों ने उसे न्याय, समानता और स्वतंत्रता के व्यापक सिद्धांतों से जोड़ा है।
चुनौतियाँ और व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य
भारत में विधि के शासन के सिद्धांत को लागू करते समय कुछ चुनौतीपूर्ण पहलू सामने आते हैं:
- कानूनों की मात्रा तो बढ़ गई है, परन्तु कागजी कानून और उनकी प्रभावी कार्यान्वयन के बीच अंतर बना रहता है।
- कानूनी प्रक्रिया की देरी और न्यायालयों में मामलों का दबाव अक्सर समयबद्ध न्याय सुनिश्चित करने में बाधक बनता है।
- प्रशासनिक मनमानी, अनावश्यक प्राथमिकताओं या संशयास्पद नियम भी विधि के शासन को प्रभावित करते हैं।
- संवैधानिक विचारों और न्यायिक व्याख्याओं का सुसंगत और स्थायी अनुपालन सुनिश्चित करना आवश्यक है।
निष्कर्ष
विधि के शासन का अर्थ केवल कानून की उपस्थिति नहीं, बल्कि कानून की श्रेष्ठता, समानता, न्यायसंगत प्रक्रिया, और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के द्वारा शक्तियों की सीमाओं का निर्धारण है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 14, 19, 21 जैसे प्रावधानों के माध्यम से और न्यायपालिका की सक्रिय व्याख्याओं द्वारा इस सिद्धांत को मजबूत किया है। प्रभावी विधि के शासन के लिए न सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों का होना आवश्यक है, बल्कि उनके व्यावहारिक पालन, त्वरित न्याय व्यवस्था, और प्रशासनिक जवाबदेही भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। अंततः यह सिद्धांत नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा और लोकतंत्र की गुणवत्ता का बुनियादी आधार है।
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