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Category: प्रशासनिक विधि

“अपने मामले में न्यायाधीश नहीं बन सकता”

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

किसी भी विधिक व्यवस्था में निष्पक्षता और धार्मिकता (impartiality and fairness) का सिद्धांत सर्वोपरि होता है। इस सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने मामलों में न्यायाधीश नहीं बन सकता (nemo judex in causa sua)। यह सिद्धांत न केवल न्यायिक प्रक्रिया की नैतिकता का आधार है बल्कि कानूनी नियमों और…

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न्यायपालिका किस प्रकार प्रशासनिक अधिकरण को नियंत्रित करती है?

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

परिचय न्यायपालिका और प्रशासनिक अधिकरण—दोनों ही शासन के महत्वपूर्ण अंग हैं। प्रशासनिक अधिकरण विशेषज्ञता-आधारित, शीघ्र और तकनीकी विवाद निपटान के साधन हैं; वहीं न्यायपालिका संवैधानिक महत्व की रक्षा, नियमों के पालन और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करती है। इसलिए न्यायपालिका का प्रशासनिक अधिकरणों पर नियन्त्रण आवश्यक है ताकि वे विधि के शासन…

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बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) — विस्तृत व्याख्या और आपातकाल के दौरान इसकी उपलब्धता 

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

प्रस्तावना       बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका, जिसे अंग्रेजी में “Habeas Corpus” कहा जाता है, अधिकारों की रक्षा का एक मूलभूत औजार है। यह न्यायिक सिद्धांत व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अभिन्न है और अवैध हिरासत के खिलाफ सबसे प्रभावी उपचार माना जाता है।  1. परिभाषा तथा शब्दार्थ   – ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका’ का शाब्दिक अर्थ…

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ट्रिब्यूनल से आप क्या समझते हैं? — ट्रिब्यूनल की प्रकृति, कार्य और प्रक्रिया की विवेचना

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

परिचय   ट्रिब्यूनल (Tribunal) शब्द का प्रयोग विशेषीकृत quasi-judicial संस्थाओं के सन्दर्भ में होता है जो विशिष्ट विषयों, विवादों या प्रशासकीय क्षेत्रों में निर्णय देने के लिए बनाए जाते हैं। सामान्य न्यायालयों की तरह ट्रिब्यूनल भी विवादों का निपटारा करते हैं, किंतु उनका स्वरूप, कार्यक्षेत्र तथा प्रक्रिया विशिष्ट, सरल और शीघ्र होती है। भारत में संवैधानिक…

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प्रशासनिक अधिकरण से आप क्या समझते हैं? इसके उद्भव और विकास के कारणों की विवेचना

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

परिचय प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunals) वे विशेष न्यायिक-प्रशासनिक संस्थाएँ हैं जिनका उद्देश्य प्रशासकीय विवादों का त्वरित, कुशल और विशेषज्ञतापूर्वक निपटारा करना है। ये अधिकरण पारंपरिक सामान्य अदालतों से पृथक् होते हैं और अक्सर विशेष क्षेत्रों—जैसे कर, सेवा, भूमि, सुरक्षा, सूचना अधिकार आदि—में विशेषज्ञता प्रदान करते हैं।  प्रशासनिक अधिकरण — परिभाषा और स्वरूप – परिभाषा: प्रशासनिक…

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“दूसरे पक्ष की सुनो” के सिद्धांत की न्यायिक निर्णयों की सहायता से मूल्याङ्कन कीजिये ? 

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

प्रस्तावना “दूसरे पक्ष की सुनो” (Audi alteram partem) न्यायिक प्रक्रिया और प्रशासनिक निर्णयों का एक मौलिक सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि किसी पर प्रभाव डालने वाला निर्णय लेने से पहले उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय (natural justice) का अभिन्न अंग है और भारत में संवैधानिक…

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नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं? 

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

परिचय नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) कानून का वह मौलिक सिद्धांत है जो वैधानिक या प्रशासनिक निर्णयों में निष्पक्षता, उपयुक्त सुनवाई और तर्कसंगत प्रक्रिया सुनिश्चित करता है। यह सिद्धांत भारतीय विधि व्यवस्था में भी गहराई से समाहित है और संवैधानिक संरक्षण के साथ न्यायिक समीक्षा के आवश्यक मानदंड प्रदान करता है।  परिभाषा और महत्व – परिभाषा:…

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उपप्रत्यायोजन से आप क्या समझते हैं? उप प्रत्यायोजन की अवधारणा को प्रशासनिक विधि में क्यों समाहित किया गया?

Posted on November 22, 2025November 22, 2025 by KRANTI KISHORE

सामान्य शब्दों में जब कोई व्यक्ति अपनी शक्ति को किसी अन्य व्यक्ति को प्रत्यायोजित करता है और वह अन्य व्यक्ति इस शक्ति को पुनः प्रत्यायोजन किसी अन्य व्यक्ति को करता है तो ऐसा पुनः प्रयोजन या उपप्रत्यायोजन कहलाता है।  उदाहरण यदि संसद को किसी विषय पर विधि बनाने की शक्ति है और वह अपनी शक्ति…

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प्रत्यायोजित विधायन पर न्यायिक नियंत्रण की पद्धतियों की विवेचना

Posted on November 20, 2025November 20, 2025 by KRANTI KISHORE

प्रस्तावना      प्रत्यायोजित विधायन (Delegated Legislation) वह विधायी तंत्र है जिसके अंतर्गत संवैधानिक या संवैधानिक निकट प्राधिकारी (अक्सर संसद या विधानमंडल) अपने कुछ विधानकारी कार्य किसी अन्य प्राधिकारी — जैसे केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, मंत्रि, प्रशासकीय विभाग या नियामक निकाय — को सौंप देता है। यह व्यवहारिकता, विशेषज्ञता और शीघ्रता के लिए आवश्यक है,…

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प्रत्यायोजित विधायन पर संसदीय नियंत्रण की विवेचना कीजिये? क्या ये नियंत्रण पर्याप्त है?

Posted on November 20, 2025November 20, 2025 by KRANTI KISHORE

प्रस्तावना प्रत्यायोजित विधायन (Delegated Legislation) या अधिनियमन वह विधायी साधन है जिसके अंतर्गत संसद या राज्य विधानमंडल कुछ नियम, विनियम, आदेश, आदेशावली आदि बनाने का अधिकार किसी वैधानिक प्राधिकारी (सरकार, मंत्री, विभागीय अधिकारी, स्थानीय प्राधिकरण) को सौंप देता है। यह व्यवहार में शासन-प्रक्रिया को त्वरित, विशेषज्ञतापूर्ण और लचीलापन प्रदान करने का माध्यम है। परन्तु अतिशय…

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