प्रस्तावना बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका, जिसे अंग्रेजी में “Habeas Corpus” कहा जाता है, अधिकारों की रक्षा का एक मूलभूत औजार है। यह न्यायिक सिद्धांत व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अभिन्न है और अवैध हिरासत के खिलाफ सबसे प्रभावी उपचार माना जाता है। 1. परिभाषा तथा शब्दार्थ – ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका’ का शाब्दिक अर्थ…
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“दूसरे पक्ष की सुनो” के सिद्धांत की न्यायिक निर्णयों की सहायता से मूल्याङ्कन कीजिये ?
प्रस्तावना “दूसरे पक्ष की सुनो” (Audi alteram partem) न्यायिक प्रक्रिया और प्रशासनिक निर्णयों का एक मौलिक सिद्धांत है। इसका अर्थ है कि किसी पर प्रभाव डालने वाला निर्णय लेने से पहले उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय (natural justice) का अभिन्न अंग है और भारत में संवैधानिक…
शरणार्थी कौन होते हैं? — 1951 कन्वेन्शन (अभिसमय) के संदर्भ में शरणार्थियों के अधिकार और बाध्यताएँ
शरणार्थी (Refugee) एक संवेदनशील और बहुपक्षीय वैश्विक मुद्दा है। युद्ध, राजनीतिक उत्पीड़न, धार्मिक या जातीय हिंसा, मानवाधिकार हनन या अन्य कारणों से अपने देश छोड़कर सुरक्षित आश्रय की तलाश करने वाले व्यक्ति को शरणार्थी कहा जाता है। यह परिभाषा पहचान और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य कानूनी ढाँचे…
संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी — स्थापना और क्षेत्राधिकार:
संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी (Office of the United Nations High Commissioner for Refugees — UNHCR) विश्व के प्रवासी-मानवाधिकार संरचनाओं में एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संस्था है। इसका मुख्य उद्देश्य शरणार्थियों, बेघर हुए लोगों और निर्वासितों के संरक्षण और सहायता को सुनिश्चित करना है। स्थापना का ऐतिहासिक संदर्भ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप व…
महिलाओं से संबंधित प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय क़रार
महिलाओं से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय क़रारों (International Conventions / Agreements) की विवेचना नीचे दी जा रही है। इसमें प्रमुख चार स्तर शामिल हैं—संयुक्त राष्ट्र के समझौते, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार क़रार, ILO के समझौते, और क्षेत्रीय घोषणाएँ। ✅ महिलाओं से संबंधित प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय क़रारों की विवेचना 1. CEDAW (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against…
युद्धबंदियों के साथ व्यवहार
युद्धबंदी (prisoner of war — POW) की अवधारणा केवल ऐतिहासिक/सैन्य शब्दावली नहीं है; यह मानवीयता, अंतरराष्ट्रीय कानून और नैतिकता के संगम का विषय है। युद्ध, विद्रोह या सशस्त्र संघर्ष के दौरान प्रतिद्वंद्वी सेनाओं द्वारा पकड़े गए व्यक्ति — चाहे वे नियमित सैनिक हों या सशस्त्र समूहों के सदस्य — के प्रति जिस प्रकार…
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की प्रमुख विशेषताएं
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (National Commission for Scheduled Castes — SC Commission) भारत में सामाजिक न्याय और समावेशन सुनिश्चित करने वाली एक संवैधानिक/कानूनी संस्था है। इसका उद्देश्य अनुसूचित जाति (SC) समुदायों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, उनके कल्याण की निगरानी और भेदभाव-उन्मूलन की पहल करना है। यहाँ हम इसकी प्रमुख विशेषताओं, कार्यक्षेत्र, शक्तियों और चुनौतियों…
भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग की शक्तियों और कार्यो का आलोचनात्मक परीक्षण
भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women, NCW) की स्थापना 1992 में संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध एक स्वायत्त निकाय के रूप में नहीं हुई—यह संसद द्वारा अधिनियमित एक संवैधानिक परे संस्थान है जिसका उद्देश्य महिलाओं के संवैधानिक, वैधानिक एवं सामाजिक अधिकारों की रक्षा और संवर्द्धन करना है। समाज में लैंगिक…
भारत में मानवाधिकारों के सम्बन्ध में राज्य के नीति निदेशक तत्वों का महत्त्व
मानवाधिकार किसी भी समाज की नैतिक और कानूनी नींव होते हैं। भारत जैसे विविध सामाजिक‑राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और संवैधानिक बहुलता वाले देश में, राज्य की नीतियाँ—विशेषकर वे नीति‑निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy, DPSP) जिन्हें संविधान के भाग IV में स्थान दिया गया है—मानवाधिकार सुनिश्चित करने में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। यहाँ हम…
“मानवाधिकार और भारतीय संविधान के भाग ३ में प्रदत्त मौलिक अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं”
मानवाधिकार और भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार दोनों ही व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता और समानता की रक्षा के साधन हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन्हें “एक ही सिक्के के दो पहलू” माना जा सकता है। यहाँ हम उनके सिद्धान्तगत आधार, व्याप्ति, स्रोत, और व्यवहारिक अनुकरण की समीक्षा करनी होगी। 1. सिद्धान्तगत समानताएं –…