परिचय
जेनेवा अभिसमय पंचाट (Geneva Conventions और उनके Additional Protocols के सन्दर्भ में) अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून (International Humanitarian Law, IHL) का केंद्रभूत स्तम्भ है। यह सशस्त्र संघर्षों के दौरान नागरिकों, घायलों और युद्धबंदियों के संरक्षण से सीधे जुड़ा होता है।
परिभाषा और इतिहास
– जेनेवा अभिसमय पंचाट (Geneva Conventions) चार अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ हैं जिन्हें 1949 में अपनाया गया। इनका उद्देश्य युद्ध के प्रभावों को सीमित करना और संघर्ष में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से शामिल असुरक्षित व्यक्तियों- जैसे घायल, युद्धबंदी और नागरिकों—की रक्षा करना है।
– इनके अतिरिक्त 1977 के दो Additional Protocols और 2005 के तीसरे प्रोटोकॉल सहित कई संशोधन और प्रोटोकॉल आए जिनका उद्देश्य मानवता की रक्षा को और सुदृढ़ करना था।
– जेनेवा परंपरा की जड़ें 1864 के प्रथम जेनेवा सम्मेलन और हेनरी ड्यूनेंट के कार्यों में मिलती हैं। यह मानवीय सिद्धांतों—मानवता, बेअभिप्रायता, अनुपक्षता और न्यायशीलता—पर आधारित है।
मुख्य प्रावधान और संरचना
1. प्रथम संधि: घायलों और रोगियों (सैनिकों) के संरक्षण से संबंधित।
2. द्वितीय संधि: समुद्री युद्ध में जहाज़ों पर घायल और मरे हुए कर्मियों व युद्ध के दौरान जहाज़ों के संचालन से संबंधित।
3. तृतीय संधि: युद्धबंदियों के अधिकार और उपचार—कैदियों के मानवीय व्यवहार की व्यवस्था।
4. चतुर्थ संधि: युद्धग्रस्त क्षेत्रों में नागरिकों की रक्षा—गृह जनसंख्या की सुरक्षा, कब्ज़े और विस्थापन संबंधी नियम।
Additional Protocols (1977)
– प्रोटोकॉल I: अंतर्राष्ट्रीय सशस्त्र संघर्षों में अतिरिक्त सुरक्षा—सिविलियन आबादी, राहत कार्य और युद्ध के साधनों/विधियों के उपयोग पर परमिशन/पाबंदियाँ।
– प्रोटोकॉल II: गैर-अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र संघर्षों (घरेलू गृहयुद्ध) में न्यूनतम संरक्षण प्रदान करता है।
– ये प्रोटोकॉल युद्ध के तरीकों और साधनों पर भी सीमाएँ लगाते हैं (जैसे अंधाधुंध तथा अनुचित अत्याचारों का निषेध) और नागरिकों की सुरक्षा पर जोर देते हैं।
मौलिक सिद्धांत
– मानवता: अत्याचार, यातना और अमानवीय व्यवहार प्रतिषेधित।
– अनुपक्षता (Impartiality): सहायता और संरक्षण किसी भी पक्ष के प्रति पक्षपात से मुक्त होना चाहिए।
– निष्पक्षता (Neutrality): मानवीय कार्यों का राजनीतिक/सैन्य पक्ष से अलग होना आवश्यक।
– आवश्यकता और अनुपात (Military necessity and proportionality): सैन्य लक्ष्य व साधनों का उपयोग आवश्यकता के दायरे में और अनुपात में होना चाहिए ताकि सिविलियन नुकसान न्यूनतम रहे।
– सुरक्षा (Protection): युद्धबंदियों, घायलों, स्वास्थ्य कर्मियों और मेडिकल सुविधाओं की सुरक्षा अनिवार्य है।
कानूनी प्रभाव और बाध्यकारी प्रकृति
– चार जेनेवा कन्वेंशन्स अंतरराष्ट्रीय प्रथागत (customary) क़ानून और संधियों का हिस्सा हैं; अधिकतर देश इन्हें स्वीकार कर चुके हैं।
– जिन देशों ने इन्हें मान्यता दी है (ratified), वे इन प्रावधानों के पालन के अन्तरराष्ट्रीय कर्तव्य के अधीन होते हैं।
– जेनेवा कन्वेंशन्स के उल्लंघन को युद्ध-अपराध, मानवता के खिलाफ अपराध या अन्य गंभीर अपराध माना जा सकता है; दोषियों के विरुद्ध घरेलू व अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों (जैसे ICC) में मुक़दमे चलाये जा सकते हैं।
– आम तौर पर “ग्रेवियस उल्लंघन” (grave breaches) जैसे निर्जन हत्याएँ, यातनाएँ, जानबूझकर नागरिकों पर हमला आदि पर कठोर दंड की व्यवस्था है और ऐसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय दायित्व उत्पन्न होते हैं।
व्यावहारिक महत्व और चुनौतियाँ
– नागरिक आबादी की रक्षा, चिकित्सकीय सेवाओं की अपरिहार्यता और युद्धबंदी के मानक आज भी मान्य हैं, परन्तु वास्तविकता में अनुपालन की समस्याएँ बनी रहती हैं।
– गैर-राज्यकृत सशस्त्र समूहों द्वारा किए जाने वाले कार्रवाई, असमान युद्ध (asymmetric warfare), और अत्याधुनिक हथियारों (ड्रोन, साइबर साधन) की उपस्थिति ने परंपरागत नियमों को चुनौती दी है।
– अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये निगरानी, रिपोर्टिंग, मानवाधिकार संस्थाओं की भागीदारी और संघर्ष के बाद जवाबदेही (accountability) आवश्यक है।
प्रासंगिक उदाहरण (संक्षेप में)
– विश्व युद्धों के बाद जेनेवा कन्वेंशन्स का विकसित स्वरूप युद्ध में मानवीय अवधारणाओं को विधिक रूप दिया।
– कुछ समकालीन संघर्षों में जेनवा नियमों के उल्लंघन के आरोप—जैसे नागरिक इलाकों पर अंधाधुंध हमले, चिकित्सा सुविधाओं का लक्ष्य बनाना—सार्वजनिक चर्चा का विषय रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय अभियोजन की मांग भी उठी है।
संक्षेप में: जेनेवा अभिसमय पंचाट युद्ध के मानवीय नियमों का संहिताबद्ध रूप है जो युद्ध में पीड़ित व्यक्तियों की रक्षा सुनिश्चित करने का प्रयत्न करता है और जिसका पालना अंतरराष्ट्रीय दायित्वों और जवाबदेही के लिये अनिवार्य माना जाता है।