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मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948 के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए उठाये गए कदम और 1966 की दीवानी एवं राजनैतिक संधि (ICCPR)

Posted on November 6, 2025November 6, 2025 by KRANTI KISHORE

 मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948 के पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए उठाये गए कदम और 1966 की दीवानी एवं राजनैतिक संधि (ICCPR) तथा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की संधि (ICESCR) के क्रियान्वयन पर एक समेकित विवेचना

प्रस्तावना
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights — UDHR), 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकार की गई, आधुनिक मानवाधिकार आन्दोलन की नींव मानी जाती है। यह दस्तावेज़ अनिवार्य कानूनी व्युत्पन्न नहीं है परन्तु अंतर्राष्ट्रीय मानदण्डों, नैतिक प्रेरणाओं और कई बाद की संधियों एवं संस्थागत व्यवस्थाओं के लिए आधार बन गया। UDHR के आलोक में 1948 के बाद अनेक क़ानूनी, राजनीतिक व संस्थागत कदम उठाये गए ताकि मानवाधिकारों की रक्षा कर पाना सम्भव हो सके। नीचे उन मुख्य कदमों तथा 1966 की संधियों के क्रियान्वयन की रूपरेखा दी जा रही है।

1948 के बाद उठाये गए प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कदम

  1. मानवाधिकार सम्बन्धी दो मुख्य संधियाँ, 1966
  • International Covenant on Civil and Political Rights (ICCPR): दीवानी (नागरिक) और राजनैतिक अधिकारों को क़ानूनी रूप दिया गया — जैसे जीवन का अधिकार, मानव सम्मान, स्वतंत्रता एवं सुरक्षा, निष्पक्ष न्याय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा व संगठन की स्वतंत्रता, मताधिकार आदि।
  • International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights (ICESCR): आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों — जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्याप्त जीवनयापन, सामाजिक सुरक्षा, सांस्कृतिक भागीदारी — के लिए अवधान दिया गया।
    ये दोनों संधियाँ 1966 में अपनायी गयीं और 1976 में लागू हुईं। इन्हें UDHR के कानूनी रूपान्तरण के रूप में देखा जाता है।
    1. विशेष अधिकारों पर संधियाँ और प्रोटोकॉल
    • 1951 की शरणार्थी कन्वेंशन; 1965 की नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन हेतु ICERD; 1979 की महिला के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन हेतु CEDAW; 1984 में यातना के विरुद्ध CAT; 1989 में बाल अधिकारों की कन्वेंशन (CRC) आदि — इन संधियों ने विशेष समूहों तथा विशिष्ट उल्लंघनों पर स्पष्ट कानूनी दायित्व तय किये।
    1. निगरानी तंत्र और मानवाधिकार संस्थाएँ
    • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UN Human Rights Council): 2006 में स्थापना (पूर्व में UN Commission on Human Rights) ने मानवाधिकारों की स्थितियों पर चर्चा, विशेष संयोजक नियुक्ति और मानवाधिकार रिपोर्टिंग के लिए बहुपक्षीय मंच दिया।
    • Office of the High Commissioner for Human Rights (OHCHR): मानवाधिकार नीति का समन्वय, सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान करता है।
    • Treaty bodies: ICCPR के लिए Human Rights Committee, ICESCR के लिए Committee on Economic, Social and Cultural Rights आदि — ये निगरानी समितियाँ राज्यों द्वारा जमा किये गये रिपोर्टों की समीक्षा करती हैं तथा टिप्पणियाँ देती हैं।
    • Special Procedures: संयुक्त राष्ट्र ने विशेष प्रतेन (special rapporteurs), कार्यदल और विशेषज्ञों की प्रणाली विकसित की जो देशों में या विशिष्ट मुद्दों (जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानूनी सहायता, टैरेरिज़्म से मानवाधिकार) पर निगरानी करते हैं।
    1. राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान (NHRIs) और नागरिक समाज की भूमिका
    • UDHR के बाद विश्वभर के देशों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, ओम्बड्समैन जैसे संस्थान बने, जो घरेलू पारदर्शिता, शिकायत निवारण व नीति-निर्देशन का काम करते हैं।
    • मानवाधिकार NGOs (जैसे Amnesty International, Human Rights Watch) ने मामलों का दस्तावेजीकरण, सार्वजनिक दबाव और कानूनी सहायता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    1. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय एवं आपराधिक दायित्व
    • अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) की स्थापना (1998, रोम स्टैच्यूट) ने युद्ध अपराध, मानवता के खिलाफ अपराध और नरसंहार के लिए व्यक्तिगत आपराधिक दायित्व का मार्ग खोला।
    • ad hoc ट्रिब्यूनल्स (जैसे ICTY, ICTR) ने क्षेत्रीय नरसंहार/युद्ध अपराधों पर मुकदमों के द्वारा उत्तरदायित्व तय किया।
    1. मानवाधिकारों को अंतरराष्ट्रीय नीति एवं व्यापार में समेकित करना
    • विकास एवं सहायता नीतियों में मानवाधिकार मानदण्डों का समावेश, ट्रेड एग्रीमेंट्स में श्रम व पर्यावरणीय मानकों की माँग, तथा कंपनियों के लिए मानवाधिकारों पर मार्गदर्शिका (UN Guiding Principles on Business and Human Rights, 2011) — सभी ने मानवाधिकार संरक्षण को बहु-क्षेत्रीय बनाया।

    1966 की संधियों (ICCPR और ICESCR) के क्रियान्वयन का ढांचा और प्रक्रिया

    1. अधिकारों का अनुशासन और प्रवर्तन का भिन्न स्वभाव
    • ICCPR के अधिकारों को आमतौर पर “नागरिक और राजनैतिक अधिकार” कहा जाता है और इन्हें तुरंत लागू किये जाने वाले अधिकार माना जाता है जिनका उल्लंघन रोकने के लिए सकारात्मक कदम अपेक्षित हैं।
    • ICESCR के अधिकारों को “आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार” कहा जाता है और इनका क्रियान्वयन क्रमिक (progressive realization) तथा उपलब्ध संसाधनों के अनुसार तय होता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य इन अधिकारों को अकार्यान्वित छोड़ सकते हैं; उन्हें कम से कम न्यूनतम साधन एवं गैर-विरोधाभासी नीतियाँ अपनानी होंगी।
    1. राज्य-प्रतिवेदन (State reporting)
    • संधियाँ पक्षी देशों से नियमित अंतराल पर रिपोर्ट माँगती हैं जिनमें वे बतलाते हैं कि उन्होंने कौन-कौन से कदम उठाये, उनके पास क्या चुनौतियाँ हैं, और आगामी योजनाएँ क्या हैं। संधियों की निगरानी समितियाँ इन रिपोर्टों की समीक्षा कर टिप्पणियाँ (concluding observations) जारी करती हैं और सुधार के लिए सिफारिशें देती हैं।
    1. राष्ट्रीय क़ानूनों और नीतियों का अनुकूलन
    • संधियों की अपेक्षा है कि पक्षी राज्य अपने घरेलू कानूनों व संस्थागत ढाँचे को संशोधित कर अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का पालन करायें — यानी संविधान, नागरिक संहिता, दंड विधान, सामाजिक सुरक्षा कानून, शिक्षा/स्वास्थ्य नीतियाँ इत्यादि को संधियों के अनुरूप समायोजित किया जाये।
    1. वैधानिक उपचार और न्यायालयों की भूमिका
    • ICCPR जैसे अधिकारों के उल्लंघन पर, कई राज्यों में प्रचलित न्यायिक प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं — उच्च न्यायालयों/संविधानिक अदालतों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मानदण्डों को लागू कर के संरक्षण दिया जा सकता है।
    • Optional Protocols: ICCPR का Optional Protocol-1 व्यक्तिगत शिकायत प्रणाली (individual communications) उपलब्ध कराता है जहाँ व्यक्ति या समूह Human Rights Committee के सामने शिकायत दर्ज करा सकते हैं अगर उन्होंने सभी घरेलू उपचारों का प्रयोग कर लिया हो। इसी प्रकार अन्य संधियों के प्रोटोकॉल भी व्यक्तिगत शिकायत-प्रक्रिया या निर्णय-मेकैनिज़्म देते हैं।
    1. विशेष अधिकारों और प्रतिबंधों का अंतरराष्ट्रीय निगरानी
    • Treaty bodies और special rapporteurs के संयोजन से न केवल रिपोर्टिंग बल्कि स्थलीय विज़िट, तकनीकी सहायता, साक्ष्य-संग्रह और सार्वजनिक रिपोर्टिंग के जरिये व्यवहारिक सुधार की माँग की जाती है।
    • General Comments: निगरानी समितियाँ संधियों की व्याख्या करने के लिए “General Comments” जारी करती हैं, जो राज्यों और अदालतों के लिए मार्गदर्शक होता है कि किसी अधिकार का क्या दायरा और हद है।
    1. प्रवर्तन की सीमाएँ और व्यवहारिक चुनौतियाँ
    • अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ ज़रूरी तंत्र देती हैं पर उनकी प्रवर्तन क्षमता अक्सर सीमित रहती है क्योंकि कार्यान्वयन मुख्यतः राष्ट्रीय स्तर पर निर्भर है। राजनीतिक इच्छाशक्ति, संसाधन, सुरक्षा स्थितियाँ और संप्रभुता के सिद्धांत कभी-कभी प्रभावी प्रवर्तन में बाधा बनते हैं।
    • परन्तु सार्वजनिक दबाव, बहुपक्षीय राजनैतिक हस्तक्षेप, आर्थिक/डिप्लोमैटिक कारण (sanctions, conditionalities), और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय/Tribunals के निर्णयों ने समय के साथ कारगर परिणाम भी दिए हैं।

    निष्कर्ष
    UDHR के पश्चात् विश्व ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी संधियाँ, निगरानी संस्थाएँ, विशेष प्रक्रियाएँ, राष्ट्रीय संस्थागत निर्माण और वैश्विक नागरिक समाज का सशक्तिकरण — अनेक समेकित कदम उठाये। 1966 की दीवानी और राजनैतिक संधि (ICCPR) तथा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संधि (ICESCR) ने UDHR के आदर्शों को कानूनी दायित्वों में बदला और उनके क्रियान्वयन के लिए रिपोर्टिंग, निगरानी, न्यायिक उपचार और व्यक्तिगत शिकायत तंत्र जैसे औज़ार दिये। बावजूद इसके, प्रभावी संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, संसाधनों का समुचित वितरण, पारदर्शिता और नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य है। अंतर्राष्ट्रीय कानून ने आधार और उपकरण दिए हैं; असल सफलता का निर्णय उन उपायों के व्यवहारिक अमल और नियमित सुधार से होगा जो राज्यों और वैश्विक समुदाय द्वारा उठाये जाते हैं।

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