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उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता २००६ के अधीन किन किन मामलो में प्रथम और द्वितीय अपील हो सकती है?क्या सिविल प्रक्रिया संहिता १९०८ और परिसीम अधिनियम १९६३ से प्रावधान राजस्व न्यायालयों पर लागू होंगे?

Posted on November 24, 2025November 25, 2025 by KRANTI KISHORE

प्रस्तावना

उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (आगे “संहिता”) ग्रामीण/राजस्व न्यायालयों में भूमि-संबंधी विवादों के निपटारे का मुख्य कानूनी ढाँचा है।  दो पृथक परन्तु संबंधित मुद्दे पूछे गए हैं: (1) किन-किन मामलों में प्रथम व द्वितीय अपील सम्भव है; और (2) क्या सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) तथा परिसीमन अधिनियम, 1963 के प्रावधान राजस्व न्यायालयों पर लागू होंगे।

प्रश्न 1: उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 के तहत किन मामलों में प्रथम व द्वितीय अपील हो सकती है?

1. सामान्य सिद्धांत

– संहिता में अपील अधिकार और अपीलीय संरचना स्पष्ट रूप से निर्धारित है। सामान्यतः किसी भी निर्णय या आदेश के विरुद्ध जो कि अधिनियम की धारणाओं के अंतर्गत आता है, प्रथम अपील और कुछ मामलों में द्वितीय अपील का अधिकार दिया जाता है, पर यह अधिकार सीमित एवं निर्देशित होता है।  

– विशिष्ट प्रावधानों के अनुसार अपील की पात्रता, समय-सीमा, और अपीलीय न्यायाधिकरण (जनपदीय/सर्किलल स्तर व उच्चतर) का निर्धारण किया गया है।

2. प्रथम अपील (First Appeal)

– साधारणतः किसी भी राजस्व अधिकारी के निर्णय (जैसे पटवारी/निबंधक/आयुक्त/अपराधी आदेश) के विरुद्ध पहले स्तर की अपील अधिक ऊँचे राजस्व अधिकारी (अध्यक्ष/आयुक्त/सह-आयुक्त आदि) के पास प्रथम अपील होती है।  

– संहिता में तब तक की बाधाएँ स्पष्ट हैं कि किन आदेशों पर अपील की अनुमति है—उदा. भूमि के मालिकाना हक, कब्ज़ा-उत्पत्ति के आदेश, रकबा निर्धारण, भूमि का विस्थापन/उपयोग संबंधी आदेश इत्यादि।  

– प्रथम अपील की समय-सीमा और नोटिस की आवश्यकता संहिता में वर्णित होती है; अनुवर्ती प्रक्रिया साक्ष्य-संग्रह, पुन: परीक्षण की सीमाएँ तथा आदेश की आवश्यकता के आधार पर होती है।  

3. द्वितीय अपील (Second Appeal / Revision)

– कुछ गंभीर मुद्दों या प्रश्नों पर जो प्रथम अपीलीय निर्णय बनाता है, उसके विरुद्ध उच्चतर राजस्व न्यायाधिकरण (जिला स्तर से ऊपर/राज्य काउंसिल/राजस्व न्यायालय के उच्चतर बोर्ड) के समक्ष द्वितीय अपील या रिवीजन का प्रावधान होता है।  

– द्वितीय अपील सामान्यतः विशेषाधिकारयुक्त मामलों तक सीमित रहती है—जैसे कि कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न, साक्ष्य के भ्रामक प्रयोग, या जहाँ प्रथम अपीलीय निर्णय में निष्पक्षता/कानूनी त्रुटि सिद्ध हो।  

– संहिता यह भी निर्धारित कर सकती है कि किन आदेशों पर निरावरण (revision) का अधिकार रहेगा और किन पर निषेध (e.g., छोटे-मौलिक आदेश जिन पर सीधे रूप से अपील नहीं)।  

4. विशेष उदाहरण (अभ्यस्त संहितात्मक ढांचा)

– (नोट: सटीक धारा-संदर्भ उत्तरपुस्तक/संहिता के नवीनतम संस्करण अनुसार परीक्षार्थी को देना चाहिए) सामान्यतः:

  – भूमिधारकता संबंधी अंतिम निर्णयों पर प्रथम अपील तथा कुछ मामलों में द्वितीय अपील का अधिकार होगा।

  – रकबा निर्धारण अथवा राज्य द्वारा किए गए कटौती/मुआवजे के आदेशों पर प्रथम अपील दी जाती है; यदि प्रथम अपीलीय निर्णय में कोई प्रमुख़ कानूनी प्रश्न उठता है तो राज्यस्तर पर द्वितीय अपील/रिवीजन सम्भव है।

प्रश्न 2: क्या CPC 1908 और परिसीमन अधिनियम 1963 के प्रावधान राजस्व न्यायालयों पर लागू होंगे?

1. मूल सिद्धांत — अलगाव और अनुप्रयोग

– आमतौर पर राजस्व न्यायालयों का संचालन राजस्व संहिताओं द्वारा नियंत्रित होता है और वे प्रक्रियात्मक रूप से सिविल न्यायालयों से भिन्न होते हैं।  

– CPC का उद्देश्य सिविल न्यायिक प्रक्रिया का विनियमन है; राजस्व संहिता जब स्पष्ट रूप से किसी प्रावधान में CPC के अनुप्रयोग का उल्लेख करती है, तभी CPC की प्रक्रिया राजस्व न्यायालयों पर लागू होगी। अन्यथा, राजस्व संहिता की अपनी प्रक्रियात्मक व्यवस्था लागू रहेगी।  

2. न्यायालयों द्वारा स्थापित न्यायशास्त्रीय मानक

– सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों के निर्णयों में स्पष्ट किया गया है कि राजस्व न्यायालय एक अलग प्रकार की संघठित न्यायिक प्रक्रिया है और केवल तभी CPC लागू होगा जब संहिता में उस तरह का अनुप्रयोग निर्दिष्ट हो या संशय की स्थिति में सामान्य न्यायसिद्धांत लागू करने के लिए CPC के प्रावधानों को परामर्श हेतु लिया जा सकता है।  

– उदाहरणतः जब राजस्व संहिता में निष्क्रियता/प्रमाण-पद्धति, गवाही, फाइलिंग अवधि आदि के संबंध में मौन हो और CPC के सिद्धांतों का उपयोग करने से निष्पक्ष निपटान सुनिश्चित हो, तो न्यायालय CPC के कुछ सिद्धांतों का सहारा ले सकता है, परन्तु यह स्वतः लागू नहीं माना जाएगा।  

3. परिसीमन अधिनियम, 1963 का व्यवहार

– परिसीमन अधिनियम का लक्ष्य सीमांकन प्रक्रियाओं व सरहद-निर्धारण का नियमबद्धकरण है। यदि उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता में परिसीमन अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने का उल्लेख है या वे विधिवत रूप से संबंधित हैं (विशेषकर सीमा/नक्शा/सर्वे संबंधी मामलों में), तो वे राजस्व मामलों में उपयोगी होंगे। परंतु, सामान्यतः परिसीमन अधिनियम का स्वतः लागू होना तभी संभव है जब संहिता या नियमों ने उसे संदर्भित किया हो।  

– कई बार न्यायालयों ने परिसीमन से संबन्धित प्रक्रियाओं पर CPC की तुलना कर के उपयुक्त निर्देश दिये हैं, परन्तु फिर भी लोक-व्यवस्था व राजस्व-कानून की विशेष प्रकृति को ध्यान में रखा जाता है।  

4. संक्षेप में न्यायिक दृष्टिकोण

– उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता के तहत राजस्व न्यायालयों के लिए CPC और परिसीमन अधिनियम तब तक सीधे लागू नहीं माने जाएंगे जब तक संहिता या संबंधित नियम/आदेश उन्हें लागू करने का निर्देश न दें।  

– तथापि, न्यायालयों ने समय-समय पर CPC और परिसीमन अधिनियम के सिद्धांतों को मार्गदर्शक के रूप में अपनाया है, विशेषकर जब संहिता में स्पष्ट व्यवस्था नहीं होती, ताकि निष्पक्ष एवं सुव्यवस्थित न्याय सुनिश्चित हो सके।  

निष्कर्ष (Exam-friendly summary)

– उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 के तहत प्रथम अपील सामान्यतः निचली राजस्व इकाई के निर्णय के विरुद्ध उच्चतर राजस्व अधिकारी/न्यायाधिकरण में की जाती है; द्वितीय अपील/रिवीजन केवल उन मामलों में मिलेगी जहाँ संहिता ने ऐसा प्रावधान किया हो या जहाँ प्रथम अपीलीय निर्णय में महत्वपूर्ण कानूनी या प्रक्रिया-सम्बन्धी त्रुटि हो। 

– CPC 1908 और परिसीमन अधिनियम 1963 अपने आप राजस्व न्यायालयों पर लागू नहीं होते; उनके प्रावधान तभी लागू माने जायेंगे जब संहिता/रूल्स में स्पष्ट रूप से निर्देश हों या न्यायिक आवश्यकता व नियमों की खामी को पूरा करने हेतु न्यायालय उन सिद्धांतों को संदर्भित करे।

Land Law, उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006, भूमि विधि

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