परिचय
ग्राम सभा भारतीय लोक प्रशासन की सबसे निचली और महत्वपूर्ण प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक इकाई है। यह ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता — यानी 18 वर्ष और उससे अधिक आयु के निवासियों — का सम्मिलित निकाय है। भारतीय संविधान के 73वें संशोधन (1992) ने ग्राम सभा को स्थानीय स्वशासन प्रणाली का केन्द्रिक अंग मानकर उसके अधिकारों और कर्तव्यों को संवैधानिक मान्यता दी।
परिभाषा व कानूनी स्थिति
– परिभाषा: ग्राम सभा वह समूह है जिसमें ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले सभी निर्वाचित मतदाता सदस्य शामिल होते हैं।
– संवैधानिक आधार: संविधान के अनुच्छेद 243(b) में ग्राम सभा की परिभाषा और 73वें संशोधन के चौथे अनुसूची तथा दसवीं अनुसूची के साथ पंक्तिबद्ध प्रावधानों ने स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक मान्यता दी।
– वैधानिक गठन: राज्य द्वारा पारित पंचायती राज अधिनियम (state Panchayati Raj Act) ग्राम सभा के आयोजन, बैठक आह्वान, रिकॉर्ड रखने और निर्णय प्रक्रिया के विवेक का विस्तार करता है।
ग्राम सभा के उद्देश्य और महत्व
– प्रत्यक्ष लोकतंत्र का माध्यम: ग्राम में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करती है।
– जवाबदेही और पारदर्शिता: पंचायतों के निर्णयों व कार्यों में जनहित की निगरानी सुनिश्चित होती है।
– स्थानीय समस्याओं का निदान: बुनियादी सेवाओं (सड़क, पानी, स्वच्छता, सार्वजनिक स्वास्थ्य) के लिए स्थानीय जरूरतों की पहचान व प्राथमिकता तय करती है।
– सामाजिक समरसता व विकास: सरकारी योजनाओं का लाभ सुनिश्चित करने तथा ग्रामीण विकास परियोजनाओं का अनुरूप प्रबंधन करने में सहायक होती है।
ग्राम सभा के कार्य (प्रमुख)
1. अनुमोदन और योजना:
– वार्षिक विकास योजनाओं (वार्षिक कार्यसूची, ग्राम कल्याण योजनाएँ) पर विचार और अनुमोदन।
– आवश्यक प्राथमिकताओं की पहचान तथा परियोजनाओं की प्राथमिकता निर्धारण।
2. निगरानी और समीक्षा:
– पंचायत द्वारा किए जा रहे कार्यों का निरीक्षण और कार्यान्वयन की समीक्षा।
– सरकारी योजनाओं, जैसे NREGA, स्वच्छ भारत, आदि के कार्यान्वयन पर निगरानी।
3. वित्तीय निर्णय:
– पंचायत के बजट की समीक्षा और स्वीकृति (कई राज्यों में ग्राम सभा का बजट अनुमोदन में अहम भूमिका है)।
– कर/शुल्क उगाही, निधि-खर्च की प्राथमिकता पर सुझाव देना।
4. सामाजिक न्याय और कल्याण:
– कमजोरो/दीन-हीनों के कल्याण हेतु निर्णय लेना; सार्वजनिक सम्पदा व सामान्य उपयोग की वस्तुओं का प्रबंधन।
– निर्धनता उन्मूलन, पेंशन, महिला-आधारित पहल आदि का समर्थन।
5. भूमि व सार्वजनिक उपयोग:
– सामूहिक भूमि (commons), तालाब, चरागाह आदि के उपयोग व संरक्षण से संबंधित निर्णय।
– सार्वजनिक भवनों/सुविधाओं के निर्माण व रखरखाव के निर्देश देना।
6. विवाद निवारण व अनुशासन:
– छोटे-मोटे स्थानीय विवादों का समझौता—हालाँकि न्यायिक शक्तियाँ सीमित होती हैं और गंभीर मामलों के लिये न्यायालय का सहारा आवश्यक होता है।
7. सूचना व जनभागीदारी:
– पंचायत की बैठकों, योजनाओं व खर्च संबंधी सूचना का प्रकाशन; नागरिकों को भाग लेने के आह्वान।
ग्राम सभा की शक्तियाँ (कानूनी और व्यवहारिक)
– संवैधानतिक रूप से ग्राम सभा को अधिकारों का जिक्र राज्य-दर-राज्य पंचायती राज कानूनों में मिलता है। प्रमुख शक्तियाँ:
1. निर्णयात्मक शक्ति: स्थानीय विकास कार्यों, प्राथमिकताओं और सर्वेक्षणों में निर्णायक भूमिका।
2. नियामक/परामर्शात्मक शक्ति: स्थानीय नियमों, उपयोग नीतियों और सांकेतिक निर्देशों का निर्धारण (जहाँ राज्य कानून अनुमति देते हों)।
3. वित्तीय अधिकार: सामरिक स्तर पर बजट की मंजूरी/समीक्षा; अनुदान, कर या शुल्क की सिफारिशें (स्टेट एक्ट के अनुरूप)।
4. नियंत्रण व निगरानी: योजना के निष्पादन, जनरल रिकॉर्ड, स्तोत्र व प्रमाणिकता की जाँच करने की शक्ति।
5. साक्ष्य एवं सार्वजनिक अभिलेख का अधिकार: पंचायत द्वारा लिए गए निर्णयों और खर्चों के रिकॉर्ड तक पहुँच।
सीमाएँ और संवैधानिक/विधिक बाधाएँ
– न्यायिक शक्तियों का अभाव: ग्राम सभा गंभीर या अपराध संबंधी मामलों का विधिक निपटारा नहीं कर सकती।
– राज्य का सुपरिवेक्षण: राज्य सरकार और जिला पंचायत के दिशा-निर्देशों तथा नियंत्रण के अधीन रहती है।
– संसाधन सीमाएँ: वित्तीय एवं प्रशासनिक संसाधनों की कमी प्रभावी क्रियान्वयन में बाधक।
– वैधानिक विविधता: विभिन्न राज्यों के पंचायती राज कानूनों में ग्राम सभा की शक्तियाँ और अनिवार्यता भिन्न-भिन्न होती है — इसका ज्ञान परीक्षा उत्तर में दिखाना उपयोगी होगा।
ग्राम सभा स्थानीय शासन की आधारभूत इकाई है जो योजना-निर्माण, निगरानी, वित्तीय अनुमोदन और सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन में केंद्रीय भूमिका निभाती है। संविधान ने इसे न्यायसंगत व समावेशी स्थानीय प्रशासन के लिए अनिवार्य माना है, परन्तु इसकी प्रभावशीलता संसाधन, राज्य नीतियों और स्थानीय सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है।