परिचय
भू राजस्व (Land Revenue) भारतीय राजस्व व्यवस्था का एक मौलिक घटक है। ऐतिहासिक दृष्टि से भू राजस्व भूमि से सरकार द्वारा प्राप्त किया जाने वाला वह कर या राशि है जो शासन-व्यवस्था, भूमि रिकॉर्ड एवं प्रबंधन के लिए प्रयोज्य मानी जाती है। आधुनिक संदर्भ में भू राजस्व में भूमि कर, पट्टा/किराया, भूमिधन/भू-कर और संबंधित दंडिक वसूलियाँ शामिल हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश में भू राजस्व का प्रशासन प्रमुखत: उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (Uttar Pradesh Revenue Code, 2006) के तहत होता है।
भू राजस्व — परिभाषा एवं उद्देश्य
– परिभाषा: संहिता में ‘भू राजस्व’ से तात्पर्य वह राशि है जो भूमि के उपयोग एवं अधिकारों के आधार पर राज्य द्वारा वसूली जाती है — जैसे पट्टे का किराया, जमीन का बेतहाशा उपयोग होने पर दंड अथवा अन्य संबंधित वसूलीय भुगतान।
– उद्देश्य: भूमि का अनुशासित उपयोग सुनिश्चित करना, भूमि-संपत्ति के अभिलेख बनाए रखना, स्थानीय प्रशासन तथा विकास के लिए वित्तीय साधन जुटाना, और भूमि विवादों/अनधिकृत कब्जों को रोकना।
उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 — भू राजस्व वसूली का कानूनी ढाँचा
संहिता 2006 ने पूर्व में लागू कई नियमों व प्रावधानों का संकलन और पुनर्रचना प्रस्तुत की है। भू राजस्व वसूली की प्रक्रिया में सामान्यतः जिन प्राधिकारियों और दस्तावेजों का महत्व है वे हैं: तहसीलदार/रिकॉर्डिंग अधिकारी, निबंधक (Registrar)/भूमि-अभिलेख अधिकारी, जिला मजिस्ट्रेट, राजस्व अधिकारी, नोटिस/निबन्धन कागजात, वसूली आदेश और उसे लागू करने के साधन (जैसे कब्जा-विस्थापन, संपत्ति कुर्की इत्यादि जहां कानूनी प्रावधान हों)।
भू राजस्व वसूली की सामान्य प्रक्रिया — चरणबद्ध विवरण
1. वसूली का आधार और निर्धारण
– किसी भूमि के सम्बन्ध में राजस्व, किराया, दण्ड, या अन्य वसूली का आधार खाता, पट्टा, निबन्धन या राजस्व अभिलेखों के अनुसार निर्धारित होता है। राजस्व अधिकारी/तहसीलदार या संबंधित प्राधिकारी वसूली की राशि तय करते हैं।
– यदि भूमि-कर/किराया या अन्य वसूली में विवाद है तो अधिकारी जांच कर प्रासंगिक अभिलेखों व नियमों के आधार पर आदेश जारी करेंगे।
2. नोटिस जारी करना
– वसूली से पहले अधिनियम तथा संहिता के नियमों के अनुरूप डिफाल्टिंग पक्ष को लिखित नोटिस दिया जाता है जिसमें बकाया राशि, भुगतान की समय-सीमा और गैर-भुगतान पर लागू होने वाले परिणाम बताये जाते हैं।
– नोटिस में अपील के अधिकार, विवरण और किसी भी दावे/आपत्तियों को प्रस्तुत करने के लिए समय सीमा का उल्लेख अनिवार्य होता है।
3. भुगतान का अवसर व बकाया न मिटने पर प्रवर्तन
– नोटिस के बाद यदि देय राशि का भुगतान नहीं होता तो संहिता में निर्धारित प्रवर्तन उपाय लागू होते हैं। इनमें अविलंब जुर्माना, ब्याज, भूमि पर कब्जे का निष्कासन, संपत्ति की कुर्की या भूमि-उपज/किसी अन्य लाभ की रोक शामिल हो सकती है।
– राजस्व अधिकारी आदेश जारी कर वसूली के लिए संविधिक कार्रवाई का निर्देश दे सकते हैं।
4. राजस्व आंशिक वसूली और किस्तों में भुगतान
– कई मामलों में तहसीलदार अथवा उपयुक्त प्राधिकारी को किस्तों में भुगतान की सहमति देने या छूट देने का अधिकार दिया गया होता है, बशर्ते शेष राशि के भुगतान को सुनिश्चित करने वाले प्रावधान हों।
5. अपील और निवारण के उपाय
– संहिता में तय अपीलीय व्यवस्था के अनुसार करदाता/कर्जदार को राजस्व आदेश के खिलाफ higher revenue authorities (जैसे उप-विकास अधिकारी, जिला अधिकारी या निर्दिष्ट अपीलीय प्राधिकरण) के पास अपील करने का अधिकार होता है।
– अपील में रोक लगाने (stay) के प्रावधान सीमित परिस्थितियों में ही दिए जाते हैं; सामान्यतः पहले आदेश का पालन करना आवश्यक होता है।
6. अंतिम प्रवर्तन — कुर्की और नीलामी
– यदि उपर्युक्त उपाय विफल रहते हैं, तो राजस्व अधिकारी संबंधित संपत्ति (उपज, फसल, आभूषण आदि) की कुर्की कर सकते हैं और संहिता/नियमों के तहत नीलामी कर वसूली कर सकते हैं। भूमि के स्वामित्व-हक को हटाने वाले उपाय सीमित और कानूनी नियंत्रित होते हैं; व्यापक रूप से भूमि-हक को निष्कासित करने से पहले संवैधानिक, कानूनी तथा प्रक्रियात्मक सुरक्षा आवश्यक है।
प्रमुख कानूनी सिद्धांत एवं प्रक्रिया-सुरक्षा
– स्वाभाविक न्याय (Natural Justice): वसूली प्रक्रिया में पक्ष को सुनने का अवसर दिए बिना दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
– प्रक्रिया का पालन: संहिता व नियमों के अनुरूप लिखित आदेश, नोटिस और अभिलेख आवश्यक हैं।
– वैधानिक शक्तियों का सीमित उपयोग: राजस्व अधिकारियों की शक्तियाँ संहिता द्वारा निर्दिष्ट हैं; अतः कोई भी कठोर कार्रवाई तभी वैध होगी जब वह प्राधिकरण की सीमा में हो और प्रक्रिया का पालन किया गया हो।